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तत्वार्यश्लोकवार्तिक
उस प्रमाणके विषय वास्तविक एकत्वकी सिद्धि होय यह परस्पराश्रय हुआ । यदि दूसरे प्रत्यभिज्ञानसे पहिले प्रत्यभिज्ञानके विषय एकत्वको साधा जायगा तब तो दूसरे प्रत्यभिज्ञानके विषयकी भी अन्य तीसरे, चौथे, आदि प्रत्यभिज्ञानोंसे सिद्धि होगी इस प्रकार ‘अनवस्था दोष आता है। ग्रन्थकार कहते हैं कि यह तो बौद्धोंको नहीं कहना चाहिये । क्योंकि यों तो प्रत्यक्षको भी नील आदि विषयोंको जाननेमें प्रमाणपना साधनेपर समानरूपसे अन्योन्याश्रय और अनवस्था दोष प्राप्त हो जायंगे दूसरे प्रकारसे इन ही दोषोंको अपने ऊपर लागू होता सुनियेगा।
नीलसंवेदनस्यार्थे नीले सिद्धे प्रमाणता । तत्र तस्यां च सिद्धायां नीलोर्थस्तेन सिध्यति ॥ ७४ ॥
वास्तविक नील पदार्थके सिद्ध होजानेपर नील प्रत्यक्षको प्रमाणपना आता है। और उस नीलस्वलक्षणमें हुये नील ज्ञानकी उस प्रमाणताके सिद्ध हो चुकनेपर उस प्रमाणज्ञानसे नील स्वलक्षणरूपी अर्थ सिद्ध होता है, यह अन्योन्याश्रय दोष हुआ । दूसरे आदि प्रत्यक्षोंसे विषयसिद्धि माननेपर अनवस्था दोष लग जायगा। - इत्यन्योन्याश्रितं नास्ति यथाभ्यासबलात्कचित् ।
स्वतः प्रामाण्यसंसिद्धेरध्यक्षस्वार्थसंविदः ॥ ७५ ॥ तदेकत्वस्य संसिद्धौ प्रत्यभिज्ञा तदाश्रया। प्रमाणं तत्पमाणत्वे तया वस्त्वेकता गतिः ॥ ७६ ॥ इत्यन्योन्याश्रितिर्नस्यात्स्वतः प्रामाण्यसिद्धितः। स्त्रभ्यासात्मत्यभिज्ञायास्ततोन्यत्रानुमानतः ॥ ७७॥
यदि बौद्ध यों कहें कि किसी ज्ञानमें प्रमाणपनेकी सिद्धि यथायोग्य अभ्यासके बलसे स्वयं हो जाती है और किसी अर्थमें वस्तुभूतपना भी अभ्यासकी सामर्थ्यसे स्वयं हो जाता है । दूसरी तीसरी कोटिपर अभ्यास दशाके परमार्थ स्वलक्षण या प्रमाणज्ञान सुलभतास मिलजाते हैं। अतः प्रत्यक्षरूप स्वार्थसम्बित्तिका प्रमाणपना स्वतः ही अभ्भासवश अच्छा सिद्ध हो रहा है । इस कारण अन्योन्याश्रय दोष नहीं है । जिस प्रकार बौद्धोंका यह कथन है उसी प्रकार हम स्याद्वादी कहते हैं कि कहीं उस वस्तुभूत एकत्वकी समीचीन सिद्धि होनेपर उसके आश्रयसे प्रत्यभिज्ञान प्रमाण हो जाता है । और क्वचित उस प्रत्यभिज्ञाका प्रमाणपन अच्छा सिद्ध हो चुकनेपर उस प्रमाण आत्मक प्रत्यभिज्ञा करके वस्तुभूत एकपना जानलिया जाता है। इस प्रकार हमारे यहां भी अन्योन्याश्रय दोष नहीं आता है। क्योंकि अच्छा अभ्यास होनेसे प्रत्यभिज्ञानको स्वतः ही प्रमाणपना सिद्ध हो