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तत्वार्थचिन्तामणिः
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नित्येकाते न सा तावत्पौर्वापर्यवियोगतः । नाशकांतेपि चैकत्वसादृश्याघटनात्तथा ॥ ७२॥
पदार्थको कूटस्थ नित्यपनका एकान्त माननेपर तो पहिले पीछेपनका वियोग हो जानेसे वह प्रत्यमिक्षा नहीं बन पाती है। तथा सर्वथा क्षणमें नाश हो जानेका एकान्त माननेपर भी तिस प्रकार एकपन और सदृशपन नहीं घटित होता है । अतः क्षणिक पक्षमें भी एकत्व विषयिणी और सादृश्यविषयिणी प्रत्यभिज्ञा नहीं बनी । किन्तु लोकमें समीचीन प्रत्यभिज्ञान हो रहे देखे जाते हैं।
नित्यानित्यात्मके त्वर्थे कथंचिदुपलक्ष्यते । जात्यंतरे विरुध्येत प्रत्यभिज्ञा न सर्वथा ।। ७३ ॥
हां, स्याद्वादसिद्धान्त अनुसार नित्य, अनित्य, एकान्तोंसे न्यारी जातिवाले कथंचित् नित्य अनित्य आत्मक अर्थमें तो वह प्रत्यभिज्ञान हो रहा दीखता है । अतः दही और गुडकी मिली हुई अवस्थाके तीसरे स्वादसमान नित्य अनित्यसे न्यारी तीसरी जातिवाले अर्थमें प्रत्यभिज्ञान होनेका सभी प्रकारोंसे विरोध नहीं है। नित्य द्रव्योंको द्रव्यार्थिकनय विषय करता है। और अंशरूप पर्यायोंको पर्यायार्थिकनय जानता है। किन्तु द्रव्य और पर्यायोंसे तदारमक हो रही जात्यंतरवस्तुको प्रमाणज्ञान जानता है।
___वतो न प्रत्यभिज्ञायाः किंचिद्वाधकमस्तीति वाषाबिरहलक्षणस्य संवादस्य सिदेरप्रमाणत्वसाधनमयुक्तं।
तिस कारण अबतक सिद्ध हुआ कि सादृश्य प्रत्यभिज्ञा या एकस्व प्रत्यभिज्ञाका बाधक कोई नहीं है । इस कारण बाधाओंका विरहस्वरूप सम्वादको सिद्धि हो जानेसे फिर प्रत्यभिज्ञानमें अप्रमाणपनका साधन करना युक्त नहीं है । " नन्वस्त्वेकत्व " आदि पचासवीं कारिकामें किये गये कटाक्षको आप बौद्ध लौटा लीजिये, इसीमें कल्याण है।
ननु चैकत्वे प्रत्यभिज्ञा सत्सिद्धौ प्रमाणं संवादाचत्रमाणत्वसिद्धौ ततस्तद्विषयस्यैकत्वस्य सिद्धिरित्यन्योन्याश्रयः । प्रत्यभिज्ञांतरात्मयममत्यभिज्ञाविषयस्य साधने तद्विषयस्यापि प्रत्यभिज्ञांतरात्सायनमित्यनवस्थानमिति चेत्र, प्रत्यक्षस्यापि नीलादौ प्रमाणत्व. साधने समानत्वात् । इतरथाहि
___बौद्ध शंका करते हैं कि जैनोंके कथनमें अन्योन्याश्रय दोष है कि वास्तविक एकत्वमें प्रत्यमिझाकी प्रवृत्ति आप जैनोंने मानी है। उस वस्तुभूत एकत्वकी सिद्धि हो जानेपर बाधविधुररूप सम्पादसे प्रत्यमिज्ञानमें प्रमाणपना सिद्ध होय और उस प्रत्यभिज्ञानमें प्रमाणपना सिद्ध हो चुकनेपर