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तत्त्वार्यश्लोकवार्तिके
जाते हैं । भगवानके दर्शन पूजनसे या सत्यव्रत या ब्रह्मचर्य धारनेसे अथवा सामायिक करनेसे आत्मीक सुख मिलेगा, यह कार्यकारणभाव बताना व्यवहारमात्र है । वस्तुतः विचारा जाय तो परमात्माका दर्शन, पूजन करना, सत्य बोलना, ब्रम्हचर्य पालन करना, सामायिक करना ही सुख, शान्ति, और परमात्माका स्वरूप है । प्रकरणमें यह कहना है कि क्षयोपशमके अनुसार स्मरण की गई पूर्वपर्यायोंमें रहनेवाले अन्वेता द्रव्यका प्रत्यभिज्ञान हो जाता है ।
स्मृतिः किन्नानुभूतेषु स्वयं भेदेष्वशेषतः। प्रत्यभिज्ञानहेतुः स्यादिति चोद्यं न युक्तिमत् ॥ ४७ ॥ तादृक्षयोग्यताहानेः तद्भावेत्वस्ति सांगिनां । व्यभिचारी हि तत्रान्यो हेतुः सर्वः समीक्ष्यते ॥४८॥
स्वयं अनुभव किये गये भेदप्रभेदोंमें पूर्णरूपसे स्मृति क्यों नहीं होती है ! जो कि स्मरण किये गये सभी भेद, प्रभेद, अंश, उपांशोंमें होनेवाले प्रत्यभिज्ञानका हेतु हो जाय, यह आक्षेपपूर्ण प्रश्न उठाना युक्त नहीं है । क्योंकि तैसे अंश उपांशोंके स्मरण करनेकी योग्यता नहीं है । हां, जिन जीवोंमें भेद प्रभेदोंको स्मरण करनेकी क्षयोपशमरूप योग्यता विद्यमान है, उनको तो सब अंशोंका स्मरण हो ही जाता है। देखिये, कोई स्थूलबुद्धि विद्वान् प्रतिवादी द्वारा कहे गये वाक्योंका स्मरण नहीं होनेके कारण अनुवाद नहीं कर सकते हैं | तथा अन्य कोई अच्छे विद्वान् ठीक ठीक पंक्तियोंका अनुवाद करदेते हैं। कोई कोई विशिष्ट अवधान करनेवाले वादी तो प्रतिवादीके कहे हुये वर्ण वर्णका, श्वास, उच्छ्वासोंकी संख्याका और मध्यमें खांसने, डकार लेने, तकका स्मरण रखकर पुनः वैसाका वैसा ही अनुवाद करदेते हैं । सर्वत्र संस्कारके अनुसार स्मरण होना देखा जाता है । कोई मनुष्य एक छटांक भी दूध नहीं पीसकता है । दूसरा सेठे चार छटाक दूध पीता है । तीसरा विद्वान् एक सेर दूध पीजाता है । कोई कोई मल्ल दस सेर या पन्द्रह सेर दूधको चढा जाते हैं । इसमें जठराशय, अग्नि, शरीरबलके अतिरिक्त और क्या कारण कहा जाय ? वे जठराग्नि आदि कभी ऐसी क्यों हुई। इसमें भी भोगान्तरायका क्षयोपशम, व्यायाम करना, पुरुषार्थ संपादन करना, निश्चिंतता आदिक ही निमित्त कारण कहे जासकते हैं । उन क्षयोपशम आदि कारणोंके भी कषायोंकी मंदता, दयाभाव, अभयदान, कालाणुओंके द्वारा हुई वर्तना, पुण्य, पाप आचरण ही नियामक हेतु हैं। जैनसिद्धान्तमें कारणोंसे कार्यकी उत्पत्ति होना इष्ट किया है। ऋद्धि, मंत्र, चमत्कार, इन्द्रजाल, विक्रिया, अतिशय, आदिमें भी कोई पोल नहीं चलती है। इनमें भी कार्यकारणभाव है । चिंतामणि रत्न, चित्रावेल, अक्षीण महानस ऋद्धि भी कारणोंको जुटा देती हैं, तब कार्य होता है । एक ऋद्धिधारी मुनिके भोजन कर जानेसे उस कसैंडीमें करोड़ों