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तत्वार्थचिन्तामणिः
तया यावत्स्वतीतेषु पर्यायेष्वस्ति संस्मृतिः। केन तद्वयापिनि द्रव्ये प्रत्यभिज्ञास्य वार्यते ॥४५॥
उस पूर्वपर्यायोंकी तत्कालीन विशेष धारणारूप संवित्तिसे अब जितनी यथायोग्य अतीत पर्यायोंमें अच्छी स्मृति हो रही है, उनमें व्यापनेवाले द्रव्यमें इस अन्वेता जीवको प्रत्यभिज्ञा होना किसके द्वारा निवारण किया जासकता है, अर्थात् उन पर्यायोंमें वर्त्तरहे द्रव्य विषयके प्रत्यभिज्ञानको कोई नहीं रोक सकता है। .
बालकोहं य एवासं स एव च कुमारकः। युवको मध्यमो वृद्धोऽधुनास्मीति प्रतीतितः ॥४६॥
जो ही में पहिले बालक था, और जो ही मैं कुमार अवस्थामें था, तथा जो ही मैं युवा था, अथवा मध्यम ( अधेड ) उम्रका था, वही में इस समय बूढा हो गया हूं, ऐसी प्रतीतियां हो रही हैं। कोई कोई तो जातिस्मरण अथवा अवधिज्ञान या महानिमित्त ज्ञानसे सैकडों जन्म पहलेकी अवस्थाओंका जोडरूप ज्ञान कर लेते हैं। विशिष्ट क्षयोपशम होना चाहिये। पुराण ग्रन्थोंमें तियचोंतकके जातिस्मरण होना बताया है। वर्तमानमें भी अनेक लडके, लडकियां, और युवा अपने पूर्व जन्मकी बातोंको स्मरण कर वहां जाकर ठीक ठीक बता देनेवाले देखे जा रहे हैं। क्या किया जाय ! गर्भ, जन्मकी अवस्थायें अतीव दुःखसहन की हैं। क्षयोपशमको बिगाडनेके अनेक कारण वहां उपस्थित हैं । अतः अनेक जीवोंके पूर्वजन्मकी चेष्टाओंका स्मरण नहीं होने पाता है । जब कि युवा छात्र भी प्रकाण्ड गुरुकी बताई हुई गंभीर चर्चाको दूसरे दिन भूल जाता है । तीव्र रोग हो जानेपर पढे हुये ग्रन्थोंको भूल जाता है, तो ऐसी संक्लेशकारिणी परिस्थितिमें उत्पन्न हुये भुल्लड जीवको पहिले जन्मोंकी दशाका स्मरण करना कष्टसाध्य है । हां, अनेक विषयोंका विलक्षण क्षयोपशम द्वारा स्मरण भी हो जाता है। नारकियोंके दुख सहनेमें विभंगज्ञानका स्फुरण हो जाता है। अनेक जीवोंको दुःख पडनेपर भगवान्का नाम लेना याद आता है। एक विद्वान्का स्तोत्र वाक्य है कि न स्नेहाच्छरणं प्रयान्ति भगवन् पादद्वयं ते प्रजाः। हेतुस्तत्र विचित्रदुःखनिचयः संसारघोरार्णवः। अत्यंतस्फुरदुअराश्मिनिकरव्याकीर्णभूमंडलो । श्रेष्मः कारयतीन्दुपादसाललच्छायानुरागं रविः " अर्थात् हे भगवन् ! स्नेहसे कोई तुम्हारी शरण नहीं पकडता है। जब संसारका घोर दुःख इस जीवको सताता है तो अवश्य प्राप्त हो जानेवाला सुख, शान्तिकी अभिलाषासे आपका आश्रय पकडता है। जैसे कि जेठमासके सूर्यसे संतप्त हुआ पुरुष शीतलछाया, जल, चांदनी, आदिमें अनुराग करने लग जाता है । बात यह है कि अनेक जीव पहले दुःखको दूर करनेके लिये धर्मका आश्रय लेते हैं। पश्चात् स्वाभाविक आत्मीयसुखमें निमग्न होकर धर्मका पालन करते हैं। कालान्तरमें धर्ममय बन