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तवार्थचिन्तामणिः ।
यथा चानुमायाः कचित्प्रवृत्तस्य समारोपस्य व्यवच्छेदस्तथा स्मृतेरपीति युक्तमुभयो। प्रमाणत्वमन्यथाऽप्रमाणत्वापत्तेः।
एक बात यह भी है कि किसी विषयमें प्रवर्त्त रहे समारोपका निवारण करना जिस प्रकार अनुमान प्रमाणसे हो जाता है, उसी प्रकार स्मृतिसे भी समारोपका व्यवच्छेद हो जाता है, इस कारण दोनोंको प्रमाणपना युक्त है । अन्यथा एक साथ दोनोंको भी अप्रमाणपनेका प्रसंग होगा, अर्थात् जैसे स्मृति अप्रमाण है, वैसे अनुमान भी अप्रमाण हो जायगा।
स्मृतिरनुमानत्वेन प्रमाणमिष्टमेव नान्यथेति चेत् ।
कोई पूर्वपक्ष करता है कि स्मृतिको हम न्यारा तीसरा प्रमाण नहीं मानते हैं । किन्तु आवश्यक माने जा चुके अनुमान प्रमाणपनेसे स्मृतिज्ञानको हम प्रमाण ही इष्ट करते हैं। दूसरे प्रकारोंसे नहीं, इस प्रकार पक्ष करनेपर तो आचार्य उत्तर कहते हैं।
स्मृतिर्न लैंगिकं लिंगज्ञानाभावेपि भावतः। संबंधस्मृतिवन्न स्यादनवस्थानमन्यथा ॥२२॥ परापरानुमानानां कल्पनस्य प्रसंयतः। विवक्षितानुमानस्याप्यनुमानांतराज्जनौ ॥ २३ ॥
स्मृतिज्ञान (पक्ष) अनुमानप्रमाण नहीं है (साध्य) । क्योंकि व्याप्तिग्रस्त हेतुका ज्ञान न होने पर भी स्मरणज्ञानका सद्भाव देखा जाता है (हेतु) । जैसे कि साध्य और साधनके सम्बन्धरूप व्याप्तिका स्मरण करना अनुमान ज्ञान नहीं है ( दृष्टान्त)। यदि ऐसा नहीं होगा तो दूसरे प्रकारोसे माननेपर अनवस्था होगी । अर्थात् अन्यथा यानी व्याप्ति स्मरणको भी यदि अनुमानरूप माना जायगा तो उस अनुमानमें भी व्याप्ति स्मरणकी आवश्यकता होगी और वह व्याप्तिस्मरण भी तीसरा अनुमान पडेगा । उस तीसरे अनुमानके उठानेके लिये चौथे व्याप्तिस्मरणरूप अनुमान आदिकी आवश्यकता बढ़ती ही जावेगी। इस ढंगसे अनवस्था दोष होगा । क्योंकि विवक्षा प्राप्त हुये अनुमानकी भी अन्य अनुमानोंसे उत्पत्ति माननेपर • उत्तरोत्तर अनेक अनुमानोंकी कल्पनाका प्रसंग होता ही चला जायगा। -
संबंधस्मृतीनुमानत्वे स्मर्तव्यार्थेन लिंगेन भाव्यं तस्य तेन संबंधस्त्वभ्युपगन्तव्यस्तस्य च स्मरणं परं तस्याप्यनुमानत्वे तथेति परापरानुमानानां कल्पनादनवस्था । न अनुमानांतरादनुमानस्य जनने कचिदवस्था नाम । .. जब कि अविनाभाव संबंधकी स्मृतिको अनुमानप्रमाण मानोगे तो स्मरण करने योग्य अर्थके