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तत्वार्थकोकवार्तिके
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साथ व्याप्ति रखनेवाला दूसरा हेतु होना चाहिये तभी तो अनुमान उत्पान होगा। उसका भी अपने साध्यके साथ संबंध तो स्वीकार करना ही चाहिये । संबंधके बिना कोरा हेतु तो साध्यका ज्ञापक नहीं होता है । फिर उस संबंधका स्मरण भी न्यारा मानना होगा। उस संबंधस्मरणको भी अनुमान. प्रमाण कहोगे तो फिर तिस प्रकार अनुमानके लिये भी अन्य व्याप्ति स्मरणरूप अनुमानोंकी उत्थान आकांक्षाकी डोर द्रोपदीके चीरसमान बढती ही चली जायगी । इस प्रकार आगे आगे होनेवाले अनुमानोंकी कल्पना करनेसे अनवस्था होगी । देखो भाई, दूसरे अनुमानसे अनुमानकी उत्पत्ति होना माननेमें कहीं भी ठहरना नहीं हो पाता है।
सा संबंधस्मृतिरप्रमाणमेवेति चेत् । - कोई कहरहा है कि वह साधन और साध्यके संबंधकी स्मृति तो अप्रमाण ही है। अप्रमाण ज्ञानसे भी अनुमानप्रमाणकी उत्पत्ति हो सकती है। जैसे कि जड इन्द्रियोंसे चेतनप्रत्यक्ष उत्पन्न हो जाता है । पहिले सम्यग्ज्ञानकी उत्पत्ति तो मिथ्याज्ञानसे हुई माननी ही पडेगी । दरिद्रोंकी संतान सेठ और मूल्की सन्तान पण्डित हो जाती है। अकटक सुवर्णसे कटक सुवर्ण उत्पन्न हो जाता है। कीचसे कमल और खानकी मट्टीसे सोना उपजाता है। ऐसे ही अप्रमाणसे प्रमाण उत्पन्न हो जायगा । हमने व्याप्ति ज्ञामको अप्रमाण माना है। व्याप्तिके स्मरणको भी हम प्रमाण नहीं मानते हैं । आचार्य कहते हैं कि यदि इस प्रकार वैशेषिक कहेंगे तो इसका उत्तर सुनिये ।
नाप्रमाणात्मनो स्मृत्या संबंधः सिद्धिमृच्छति । . . प्रमाणानर्थकत्वस्य प्रसंगात्सर्ववस्तुनि ॥२४॥
अप्रमाणस्वरूप स्मृति करके साध्य और साधनका अविनाभाव संबंध तो सिद्धिको प्राप्त नहीं होसकता है। क्योंकि यदि अप्रमाणज्ञानोंसे ही अर्थका निर्णय होने लगे तो सम्पूर्ण वस्तुमें यानी वस्तुओंका निर्णय करनेके लिये प्रमाणज्ञानके व्यर्थ हो जानेका प्रसंग होगा। भावार्थ-अप्रमाणसे प्रमाणकी उत्पत्ति मान भी ली जाय एतावती अप्रमाणका विषय तो वस्तुभूत नहीं जाना जा सकता है । अनुमानके लिये व्याप्तिका जानना आवश्यक है । उस संबंधरूप व्याप्तिका सत्यज्ञान तो अनुमानसे नहीं हो सकता है । मिथ्याज्ञानसे बालुको मिट्टी या जल समझकर उससे घडा या पिपासा दूर करना कार्य तो नहीं बन पाता है । यहां तो कार्य करनेवाले वस्तुभूत पदार्थ चाहिये ।
न ह्यप्रमाणात् प्रमेयस्य सिद्धौ प्रमाणमर्थक्नाम । न चाप्रमाणात् किंचित्सिद्ध्यति किंचिन्नेत्यर्धजरतीन्यायः श्रेयान् सर्वत्र तद्विशेषाभावात् ।
अप्रमाणसे ही प्रमेयकी सिद्धि होना माननेपर प्रमाणज्ञान तो भला नाममात्रको भी सफल नहीं हो पाता है। यहां यदि कोई यों कहें कि कुछ पदार्थोकी सिद्धि तो अप्रमाण ज्ञानसे हो