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प्रकारके ज्ञान उस मतिज्ञानसे भिन्न नहीं हैं, एक मतिज्ञानरूप ही हैं, यह समझलेना चाहिये । अथवा इति शद्वका समाप्ति अर्थ कर मति, स्मृति, आदि भेदवाळा मतिज्ञान चारों ओरसे मतिद्वारा समाप्त हो चुका है । उस मतिके अन्य मेद प्रभेदोंका मति, स्मृति, संज्ञा, चिंता, अभिनिबोध इन पांचोंमें अन्तर्भाव हो जाता है । ऐसा भी व्याख्यान करलेना चाहिये । अन्य उपायोंका असम्भव है तथा सिद्धान्तसे कोई विरोध नहीं है। ___स्मृतिरप्रमाणमेव सा कथं प्रमाणेतर्भवतीति चेन्न, वदप्रमाणत्वे सर्वशून्यतापत्तेः। तथाहि
___ कोई शंका उठाता है कि गृहीतपदार्थको ही ग्रहण करनेवाला स्मरणज्ञान तो अप्रमाण ही है। भला वह प्रमाणोंमें कैसे गर्भित हो सकता है ! आचार्य कहते हैं कि इस प्रकारका पूर्वपक्ष नहीं करना । क्योंकि उस स्मरणको अप्रमाणपमा माननेपर सभी प्रमाण और प्रमेयोंके शून्यपनका प्रसंग होता है । इसी अर्थको विशदकर कहते हैं।
स्मृतेः प्रमाणतापाये संज्ञाया न प्रमाणता । तदप्रमाणतायां तु चिंता न व्यवतिष्ठते ॥९॥ तदप्रतिष्ठितौ कानुमानं नाम प्रवर्तते । तदप्रवर्तनेध्यक्षप्रामाण्यं नावतिष्ठते ॥ १०॥ ततः प्रमाणशून्यत्वात्प्रमेयस्यापि शून्यता । सापि मानाद्विना नेति किमप्यस्तीति साकुलम् ॥ ११ ॥
स्मरणज्ञानको प्रमाणपना नहीं माननेपर प्रत्यभिज्ञानको प्रमाणपना नहीं आता है। क्योंकि प्रत्यभिज्ञान करनेमें स्मरणशान कारण है । अप्रमाण ज्ञानसे तो प्रमाणज्ञान उत्पन्न नहीं हो सकता है। तथा उस प्रत्यभिज्ञानको अप्रमाणपना होनेपर तो चिंताज्ञान व्यवस्थित नहीं हो पाता है। कारण कि चिंताज्ञानमें प्रत्यभिज्ञान कारण पडता है । इसी प्रकार व्याप्तिझानरूप चिंताकी प्रतिष्ठा नहीं होनेपर भला अनुमान ज्ञान कहां प्रवर्तसकता है ! अनुमानके आत्मलाम करनेमें व्याप्तिज्ञान कारण पडता है तथा उस अनुमानकी कहीं भी प्रवृत्ति न होनेपर प्रत्यक्षोंको प्रमाणपना नहीं ठहर पाता है । तिस कारण सभी ज्ञापकप्रमाणोंकी शून्यता हो जानेसे प्रमेयपदार्थोकी भी शून्यता हो हो जायगी और वह शून्यवादियोंकी शून्यता भी प्रमाणके विना नहीं सिद्ध हो पाती है । इस प्रकार " कुछ भी तत्त्व है " इस व्यवस्थाको करनेके लिये बड़ी भारी आकुलता मच जायगी। किया कराया सर्व नष्ट हुआ जाता है।