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तत्त्वार्यश्लोकवार्तिके
..मति आदिक ज्ञानोंका पृथक् पृथक् लक्षण तो शब्दकी निरुक्ति करके ही श्रीउमास्वामी आचार्यने सूचित करदिया है । क्योंकि तभी तो उन मति आदिके लक्षणको प्रकाशनेवाले सूत्रोंका उत्तर ग्रन्थमें अभाव है। जैसे कि आदिके सूत्रमें ज्ञान और चारित्रका लक्षण शद्बनिरुक्तिसे ही सूचित कर दिया है, हां, प्रकृति, प्रत्यय, द्वारा शद्बकी निरुक्ति करनेसे वाच्य अर्थमें यदि व्यभिचार दोष आवे तब तो लक्षणोंको सूचन करनेवाले अन्य सूत्रोंका बनाना आवश्यक है। जैसे कि सम्यग्दशनका लक्षण सूत्र न्यारा बनाया गया है, अन्यथा नहीं । विद्वान्को उचित है कि पहिले शब्द ही ऐसा उच्चारण करे जिससे कि अर्थका झटिति बोध हो जाय । हां, कचित् पारिभाषिक, सांकेतिक, शद्वोंका व्याख्यान भी करना पड़ता है। कारण कि शब्दसंख्यात हैं और प्रतिपाद्य अर्थ असंख्यात हैं, तथा परम्परासे ज्ञेय अर्थ अनन्त भी हैं । ऐसी दशामें कहीं कहीं लक्षण भी करना पडता है। तभी अन्तरङ्ग ज्ञानावरणपटलका विनाश होकर जीवोंके ज्ञाननेत्र उन्मीलित होते हैं।
न मत्यादीनां निरुक्तिस्तल्लक्षणं व्यभिचरति ज्ञामादिवत् न च तदव्यभिचारेपि तल्लक्षणप्रणयनं युक्तमतिप्रसंगात् सत्रातिविस्तरमसक्तिरिति संक्षेपतः सकललक्षणप्रकाशनावहितमनाः सूत्रकारो न निरुक्तिलभ्ये लक्षणे यत्नांतरमकरोत् ।
___मति, श्रुत आदि शद्बोंकी निरुक्ति उन अपने अपने लक्षणोंका व्यभिचार नहीं करती है, जैसे कि ज्ञान, चारित्र, प्रमाण, आदिका निर्वचन करना ही अपने निर्दोष लक्षणको लिये हुए हैं, और उनका व्यभिचार दोष न होनेपर भी उनके लक्षणोंकी पुनः सूत्रों द्वारा रचना करना युक्त नहीं है, अन्यथा अतिप्रसंग हो जायगा । यानी प्रसिद्ध होरहे क्रिया शब्द और लक्षण घटित सरल शद्वोंके भी पुनः लक्षणसूत्र बनाना अनिवार्य होगा और ऐसा होनेसे सूत्रग्रन्थके अधिक विस्तृत होजानेका प्रसंग होगा । टीकाग्रन्थ और उसकी भी टीका विवरणसे सूत्रग्रन्थ बहुत बढ जायगा। इस कारण संक्षेपसे सम्पूर्ण पदार्थोके लक्षणको प्रकाशनमें जिनका मन संलग्न होरहा है, ऐसे सूत्रकार श्री उमास्वामी महाराज निरुक्तिसे ही प्राप्त करलिये गये लक्षणमें पुनः व्यर्थ दूसरा प्रयत्न नहीं करते भये । महामना गम्भीर पुरुषोंका प्रयत्न हितकारक सफल कार्योंमें व्यापृत होता है ठलुआपनके व्यर्थ कार्योंमें नहीं।
स्वंतत्वाल्पाक्षरत्वाभ्यां विषयाल्पत्वतोपि च । मतेरादौ वचो युक्तं श्रुतात्तस्य तदुत्तरम् ॥ ११ ॥ मतिसंपूर्वतः साहचर्यात् मत्या कथंचन। प्रत्यक्षत्रितयस्यादाववधिः प्रतिपाद्यते ॥ १२॥