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तत्त्वार्थचिन्तामाणः
यन्मनः पर्ययावारपरिक्षयविशेषतः । मनःपर्ययणं येन मनापर्येति योपि वा ॥६॥ स मनःपर्ययो ज्ञेयो मनोत्रार्था मनोगताः। परेषां स्वमनो वापि तदालंबनमात्रकम् ॥ ७॥
जो ज्ञान मनःपर्ययज्ञानावरण कर्मके क्षयोपशमरूप विशेष परिक्षयसे अपने या दूसरेके मनमें ठहरे हुये पदार्थोका जानलिया जाता है या मनोगत पदार्थोका जिप्त करके अतीन्द्रिय प्रत्यक्ष ज्ञान करलिया जाता है, वह मनःपर्यय है अथवा जो ज्ञान मनमें तिष्ठे हुये पदार्थोंको चारों ओरसे स्वतंत्रता पूर्वक प्रत्यक्ष जानता है वह भी मनःपर्यय ज्ञान समझना चाहिये । इस प्रकार मनः उपपदके साथ परि उपसर्ग पूर्वक इण् गतौ धातुसे कर्म, करण, और कर्नामें अञ् प्रत्यय करनेपर मनःपर्यय शब्द बना है। यहां मनमें स्थित होरहे पदार्थोका मनः शद्वसे ग्रहण किया गया है । अन्य जीवोंका मन अथवा अपना भी मन उस मनः पर्ययज्ञानका केवल आलंवन ( सहारा ) है, जैसे कि किसी मुग्ध या स्थूलदृष्टि पुरुषको द्वितीयाके चन्द्रमाका अवलोकन करानेके लिये वृक्षकी शाखाओंके मध्यमेंसे या बादलों से लक्ष्य बंधाया जाता है । वहां शाखा था बादल केवल वृद्धयष्टिकाके समान अवलंब मात्र है। वस्तुतः ज्ञान तो चक्षुसे ही उत्पन्न हुआ है, इसी प्रकार अतीन्द्रिय मनःपर्यय ज्ञान तो आत्मासे ही उत्पन्न होता है किन्तु स्वकीय परकीय मनका अवलंब कर ईहा मतिज्ञान द्वारा संयमी मुनिके विकल प्रत्यक्षरूप मनःपर्ययज्ञान होता है ।
क्षायोपशमिकज्ञानासहायं केवलं मतम् । पदर्थमर्थिनो मार्ग केवंते वा तदिष्यते ॥ ८ ॥
केवल शब्द्वका अर्थ किसीकी भी सहायता नहीं लेनेवाला पदार्थ है । यह केवलज्ञान अन्य चार क्षायोपशमिक ज्ञानोंकी सहायताके विना आवरणरहित केवल आत्मासे प्रकट होनेवाला माना गया है। अथवा स्वात्मोपलब्धिके अभिलाषी जीव जिस सर्वज्ञताके लिये मार्गको सेवते हैं, वह केवलज्ञान इष्ट किया गया है । दोनों ही निरुक्तियां अच्छी हैं।
मत्यादीनां निरुक्त्यैव लक्षणं सूचितं पृथक् । तत्प्रकाशकसूत्राणामभावादुत्तरत्र हि ॥ ९॥ यथादिसूत्रे ज्ञानस्य चारित्रस्य च लक्षणम् । निरुक्तेर्व्यभिचारे हि लक्षणांतरसूचनम् ॥ १० ॥