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तत्त्वार्यचिन्तामणिः
सर्व स्तोकविशुद्धित्वात्तुच्छत्वाच्चावधिध्वनेः । ततः परं पुनर्वाच्यं मनः पर्ययवेदनम् ॥ १३ ॥ विशुद्धतरतायोगात्तस्य सर्वावधेरपि । अंते केवलमारव्यातं प्रकर्षातिशयस्थितेः ॥ १४ ॥ तस्य निर्वृत्त्यवस्थायामपि सद्भावनिश्चयात् । तेनैव पंचमं ज्ञानं विधेयं मोक्षकारणं ॥
१५ ॥
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इकारान्त उकारांत शङ्खोंकी व्याकरणमें सु संज्ञा है, सु संज्ञावाले पदोंका द्वन्द्व समास में पूर्व निपात हो जाता है । मति, श्रुत, अवधि, मन:पर्यय और केवल इन शब्दोंका कैसे भी आगे पीछे प्रयोग कर यदि द्वन्द्व किया जायगा तो सुसंज्ञान्तपद होनेके कारण मति शद्वका पूर्वमें प्रयोग हो जायगा और अल्प अच् या अल्प अक्षर होनेके कारण भी मतिका पूर्वमें प्रयोग करना आवश्यक है तथा सर्व ज्ञानों या श्रुतज्ञानकी अपेक्षा अल्पविषयक धारणपना होनेसे भी मति पदका श्रुतसे आदिमें वचन बोलना युक्त है। उस मतिज्ञानके पश्चात् श्रुतका प्रयोग करना ठीक है, श्रुतज्ञान के पूर्व में भले प्रकार मतिज्ञान होता है और किसी अपेक्षा मतिज्ञानके साथ श्रुतज्ञानका सहचरपना भी है। अतः कार्यकारण भावरूप प्रत्यासत्ति या सहचर सम्बन्धसे भी मतिके उत्तरकालमें श्रुतका वचन जच जाता है। अवधिज्ञान, मन:पर्ययज्ञान और केवलज्ञान इन तीन संख्यावाले प्रत्यक्षोंकी आदिमें संपूर्ण . प्रत्यक्षों की अपेक्षा थोडी विशुद्धि होनेके कारण तथा अवधि शद्वमें मात्राओंका थोडापन होनेके कारण अवधि पहिले कहा गया है । अवधि शब्द सुसंज्ञावाला भी है, उससे पीछे फिर मन:पर्ययज्ञानका प्रयोग करना उचित है । क्योंकि सर्वावधि से भी उस मन:पर्ययज्ञानके अति अधिक विशुद्धताका योग है । इस अवसरपर यदि गोम्मटसारके सिद्धान्तको मिलाया जाय तो अन्तर दीखता है। श्रीनेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्तीने सर्वावधिका विषय द्रव्य एक परमाणु माना है । किन्तु सूत्रकारकी अकलंक व्याख्या के अनुसार कार्माणद्रव्यका अनन्तवां भागरूप लम्बा चौडा स्कन्ध सर्वावधि ज्ञानका विषय सिद्ध है । गोम्मटसारमें विस्रसोपचयसे रहित अष्टकम के समयप्रबद्धका अनन्तवां भागरूप स्कंध ( टुकडा ) विपुलमतिका उत्कृष्ट विषय द्रव्य लिखा है। लगभग यही राजवार्तिकका मन्तव्य है । किन्तु गोम्मटसारके तसे सर्वावधिक विषय एक परमाणुका यह अनन्तवां भाग तो नहीं, प्रत्युत उससे अनन्तगुणा बडा स्कन्ध है । इस आचार्योंकी आम्नाय अनुसार चले आये हुये मतभेदको एक पथपर ले आनेका हम मन्दबुद्धिजनोंको अधिकार प्राप्त नहीं है । दोनों ही श्रद्धेय हैं। उमास्वामी महाराजके आम्नाय अनुसार सर्वावधि ऋजुमति अधिक विशुद्धिवाला है, तथा ज्ञानकी वृद्धिका प्रकर्ष होते होते केवलज्ञानमें प्रकर्षका अन्तिम अतिशय स्थित होगया है । इस कारण सम्पूर्ण ज्ञानोंके अन्तमें केवलज्ञानका कथन
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