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तत्त्वार्थीचन्तामणिः
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प्रत्यक्षपनसे साधन किया जा रहा है । किन्तु यह उत्तर सिद्धान्तियोंको अभीष्ट नहीं है । दूरवर्ती वृक्षके ज्ञानको प्रत्यक्ष माना गया है। अधिक दूर भी पडे हुये वृक्ष ग्राम आदिकी केवल ऊंची, नीची, चौडी, रचना सामान्य जाननेमें स्पष्टपना अवस्थित हो रहा है । यों सूक्ष्मतासे विचारा जाय तो निकट होनेपर भी वृक्ष आदिके अनेक विशेष अंशोंका स्पष्टज्ञान नहीं हो पाता है । सूक्ष्मदर्शक यंत्र भी हार जाते हैं । अत: उसमें श्रुतज्ञानपने का अभाव है। तथा इन्द्रियोंके होनेपर दूरवर्ती वृक्षका ज्ञान होना रूप अन्वय और इन्द्रियोंके न होनेपर वृक्षका दर्शन नहीं होना रूप व्यतिरेकका अनुविधान करने से वह ज्ञान प्रत्यक्ष ही है । और सामान्य वृक्षकी रचनाको स्पष्ट जाननेमें तिस प्रकार अस्पष्ट कल्पनासे रहित भी है । इस कारण बौद्धोंके ऊपर सिद्धसाधन दोष तदवस्थ ही रहा ।
न हि सर्वमस्पष्टतर्कणं श्रुतमिति युक्तं स्मृत्यादेः श्रुतत्वप्रसंगात् व्यंजनावग्रहस्य वा । न हि तस्य स्पष्टत्वमस्ति परोक्षत्ववचनविरोधात् । अव्यक्तशद्वादिजातग्रहणं व्यंजनावग्रह इति वचनाच्च । मतिपूर्वमस्पष्टतर्कणं श्रुतमित्युपगमे तु सिद्धं स्मृत्यादिमतिज्ञानं व्यंजनावग्रहादि वाऽश्रुतं । दविष्टपादपादिदर्शनं च प्रादेशिकं प्रत्यक्षामिति न किंचिद्विरुध्यते ।
दूसरी बात यह है कि अस्पष्टरूप से विचारनेवाले सभी ज्ञानोंको श्रुतज्ञान कहना यह युक्त नहीं है । यों तो स्मरण, प्रत्यभिज्ञान, व्याप्तिज्ञान, आदिको श्रुतज्ञानपनेका प्रसंग होगा । तथा द्व आदिको अव्यक्त जाननेवाला व्यंजनावग्रह भी श्रुतज्ञान हो जायगा, जो कि इष्ट नहीं है । उस व्यंजनावग्रहको स्पष्टपना नहीं है । क्योंकि यों कहनेसे जैनसिद्धान्तअनुसार व्यंजनावग्रहके परोक्षपन कहने का विरोध आता है । तथा अव्यक्त शब्द्व, रस, गंध, अथवा स्पर्शको या उनके समुदायस्वरूप अर्थको ग्रहण करना व्यंजनावग्रह है, ऐसा राजवार्तिकमें कहा है। हां, मतिज्ञानको कारण मानकर उत्पन्न हुये अस्पष्ट विचारनेवाले ज्ञानको श्रुतज्ञान ऐसा स्वीकार करोगे तब तो स्मृति आदिक मतिज्ञान सिद्ध हो जाते हैं । और व्यंजनावग्रह आदिक भी मतिज्ञान हैं । श्रुतज्ञान नहीं 1 हैं। तथा अधिक दूरके वृक्ष, ग्राम, आदिका देखना तो एक देशसे विशद हो रहे सांव्यवहारिक प्रत्यक्षं हैं । व्यंजनावग्रह तो सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष कथमपि नहीं हैं । इस प्रकार माननेपर हम जैनोंके यहां थोडा भी कोई विरोध नहीं आता है ।
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यदि पुनर्नास्पष्टा प्रतीतिः कल्पना यतस्वदपोहने प्रत्यक्षस्य सिद्धसाधनं । किं तर्हि १ स्वार्थव्यवसितिः सर्वकल्पनेति मतं तदा प्रत्यक्षलक्षणम संभाव्यं च तादृशकल्पनापोढस्य कदाचिदसंभवात् व्यवसायात्मक मानसप्रत्यक्षोपगमविरोधश्च ।
यदि फिर बौद्धोंका यह मंतव्य होय कि अस्पष्टप्रतीतिको हम कल्पना नहीं कहते हैं, जिससे कि प्रत्यक्षकी उस कल्पनासे व्यावृत्ति करनेपर सिद्धसाधन दोष हो सके, तो हम क्या कहते हैं ? सो सुनो। सभी कल्पनायें स्व और अर्थका निर्णय करना स्वरूप हैं । ग्रंथकार कहते हैं कि ऐसा मत