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तत्वार्थ लोकवार्तिके
तिन कल्पनाके लक्षणोंमेंसे आदिमें कही गयी कल्पनासे रहित यदि प्रत्यक्ष प्रमाण माना जायगा, तब तो बौद्धोंके ऊपर सिद्धसाधन दोष लगता है । क्योंकि अस्पष्टरूप कल्पनासे रहित विशद प्रत्यक्षको वे सिद्ध कर रहे हैं । उस प्रत्यक्ष प्रमाणके स्पष्ट होनेपर ही अवैशद्यके व्यवच्छेदकी सिद्धि होती है । अर्थात् स्पष्टपनेसे अवैशद्यकी व्यावृत्ति करनेपर परोक्षमें अतिव्याप्ति नहीं हो पाती है । अविशद प्रतिभासवाली परोक्ष प्रतीतिकी यदि व्यावृत्ति न की जायगी तो प्रत्यक्षप्रमाणका अनुमान, आगम, आदिसे भेद किसके द्वारा समझा जायगा ? अतः अविशदप्रतीति स्वरूप कल्पना से हित प्रत्यक्ष निर्विकल्पकको तो हम जैन भी प्रथमसे मान रहे हैं । उस सिद्धको ही साधने से क्या लाभ हुआ ?
स्वार्थव्यवसितिस्तु स्यात्कल्पना यदि संमता । तदा लक्षणमेतत्स्यादसंभाव्येव सर्वथा ॥ १२ ॥
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दूसरी कल्पना के अनुसार यदि स्व और अर्थके निर्णयको यदि कल्पना अच्छी मानोगे तब तो यह कल्पनाका लक्षण सभी प्रकारसे असंभव दोषवाला ही है । भावार्थ — किसी भी असत्य कल्पनामें यह लक्षण नहीं जा सकता है । प्रमाणज्ञान ही स्व और अर्थका निर्णय करते हैं । यदि ऐसी कल्पनासे रहित प्रत्यक्षको माना जावेगा तो प्रत्यक्षका लक्षण निर्विकल्प करना असम्भव व दोषयुक्त ही है ।
दविष्टपादपादिदर्शनस्यास्पष्टस्यापि प्रत्यक्षतोपगमात्कथं अस्पष्टप्रतीतिलक्षणाया कल्पनयापोढं प्रत्यक्षमिति वचने सिद्धसाधनमिति कश्चित् । श्रुतमेतन्न प्रत्यक्षं श्रुतमस्पष्ट तर्कणं इति वचनात् ततो न दोष इत्यपरः । पादपादिसंस्थानमात्रे दवीयस्यापि स्पष्टत्वावस्थितेः। श्रुतत्वाभावादक्षव्यापारान्वयव्यतिरेकानुविधानाच्च प्रत्यक्षमेव तत् तथाविधकल्पनापोढं चेति सिद्धसाधनमेव ।
जब कि अतिदूरवर्ती वृक्ष, झोंपडी आदिके अस्पष्ट हुये दर्शनों को भी प्रत्यक्षपना स्वीकार किया गया है, तो अस्पष्ट प्रतीति स्वरूप कल्पना से रहित प्रत्यक्ष है, ऐसा कथन करनेपर बौद्धोंके ऊपर सिद्धसाधन दोष कैसे हुआ ? प्रत्युत जैनोंके यहां ही दूरवर्ती पदार्थके प्रत्यक्षमें वैशद्य न होनेसे अव्याप्ति दोष आता है । इस प्रकार कोई एकदेशी बौद्ध कह रहा है । इसका उत्तर कोई दूसरा एकदेशी जैन यों देता है कि यह दूरवत्ती वृक्ष आदिका ज्ञान श्रुतज्ञान है । प्रत्यक्ष नहीं है । क्योंकि मतिज्ञानसे जाने गये अर्थके साथ संसर्ग रखनेवाले अन्य पदार्थोंकी अविशद तर्कणा करनेको श्रुतज्ञान ऐसा शास्त्रों में कहा है । तिस कारण कोई दोष नहीं है । यानी श्रुतज्ञात भलें ही 1 अस्पष्ट हो रहा सविकल्पक होय, हां, सभी प्रत्यक्षज्ञान तो अस्पष्ट कल्पनासे रहित होने के कारण निर्विकल्पक हैं । यह हम जैनोंको पहले से ही अभीष्ट है । उसी साधे गये प्रत्यक्षका निर्विकल्पक