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स्वार्थ लोकवार्तिके
" इन्द्रियवृत्तिः प्रमाणं " चक्षु श्रोत्र आदि इन्द्रियोंके वृत्ति यानी व्यापार करना प्रत्यक्ष है । यह सांख्यों का मत है । आत्मा और इन्द्रियोंका सत् होनेपर जो ज्ञान होता है, वह प्रत्यक्ष है । ऐसा मीमांसक कह रहे हैं, याणां बुद्धिजन्मप्रत्यक्षम् । इन सब प्रत्यक्षके लक्षणोंसे अतीन्द्रियप्रत्यक्षोंका संग्रह नहीं हो पाता है । किन्तु आईतोंके लक्षण से सम्पूर्ण प्रत्यक्षोंका संग्रह हो जाता है ।
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लक्षणं सममेतावान विशेषोऽशेषगोचरं ।
( नेत्र उघाडना आदि )
पदार्थ के साथ सम्प्रयोग " सत्सम्प्रयोगे पुरुषस्येन्द्र
अक्रमं करणातीतमकलंकं महीयसाम् ॥ ६ ॥
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ऊपर कहा गया प्रत्यक्षका लक्षण व्यवहारप्रत्यक्ष और मुख्यप्रत्यक्षमें समानरूपसे घटित हो जाता है । इतना ही विशेष है कि अधिक पूज्य पुरुषोंका केवलज्ञानरूप प्रत्यक्ष सम्पूर्ण अर्थोको विषय करता है । और क्रमसे अर्थोको जाननेकी टेबसे रहित है । इन्द्रिय, मन, आदि करणोंसे अतिक्रान्त है । तथा ज्ञानावरण- कर्मकलंकसे रहित है । किन्तु इन्द्रियजन्य प्रत्यक्ष तो अल्पपदार्थोको विषय करता है । क्रमक्रमसे अर्थोको जानता हुआ उत्पन्न होता है । करणोंके अधीन है, कर्मपटलसे घिरा हुआ है ।
तदस्तीति कुतोऽवगम्यत इति चेत्;
उक्त प्रकार वह योगियोंका प्रत्यक्ष जगत्में है, यह कैसे जाना जाय ? इस प्रकार पूछनेपर तो यों उत्तर है ।
एतच्चास्ति सुनिर्णीता संभवद्वाधकत्वतः । स्वसंवित्तिवदित्युक्तं व्यासतोन्यत्र गम्यताम् ॥ ७ ॥
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यह योगियोंका प्रत्यक्ष ( पक्ष ) है ( साध्य ) । क्योंकि इसके बाघकोंके असम्भवका भले प्रकार निर्णय हो रहा है [ हेतु ]। जैसे कि स्वयं अपने प्रत्यक्ष जाननेमें आ रही स्वसंवित्ति है [ दृष्टान्त ] । बाधकोंका असम्भव हो जानेसे परोक्षपदार्थोंकी भी सिद्धि हो जाती है । सबके धनको गुप्त अंगोंको, धर्मको कौन देखता फिरता है । किन्तु बहुभाग पदार्थोंकी सिद्धि उनके बाधकोंका असम्भव जान लेनेसे हो जाती है। इस बातको हम पहिले कह चुके हैं। अधिक विस्तारसे समझना हो तो अन्य विद्यानंद महोदय आदि ग्रन्थोंमें देखकर समझ लेना ।
धर्म्यत्रासिद्ध इति चेन्नोभयसिद्धस्य प्रत्यक्षस्य धर्मित्वात् । तद्धि केषांचिदशेषगोचरमक्रमं करणातीतमिति साध्यतेऽकलंकत्वान्यथानुपपत्तेः । न चाकलंकत्वमसिद्धं तस्य पूर्वे साधनात् । प्रतिनियतगोचरत्वं विज्ञानस्य प्रतिनियतावरणविगमनिबंधनं भानुप्रकाशवत् निःशेषावरणपरिक्षयात् निःशेषगोचरं सिध्यत्येव । ततः एवाक्रमं तत्क्रमस्य कलंकविगमक्रमकृतत्वात् । युगपचद्विगमे कुतो ज्ञानस्य क्रमः स्यात् ।