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यदा प्रधानभावेन द्रव्यार्यात्मवेदनं प्रत्यक्षलक्षणं तदा स्पष्टमित्यनेन मतिश्रुतमिन्द्रियानिंद्रियापेक्षं व्युदस्यते, तस्य साकल्येनास्पष्टत्वात् । यदा तु गुणभावेन तदा प्रादेशिक प्रत्यक्षवर्जनम् तदपाक्रियते, व्यवहाराश्रयणात् ।
जिस समय प्रधानपनेसे द्रव्यस्वरूप अर्थ और स्वयं अपना वेदन करना प्रत्यक्षका लक्षण है, तब तो (स्पष्टं) ऐसे इस विशेषण करके इन्द्रिय और अनिन्द्रियकी अपेक्षा रखनेवाले मतिज्ञान और श्रुतज्ञानका निराकरण किया है । क्योंकि वे स्मृति आदिक सभी मतिज्ञान और श्रुतज्ञान संपूर्ण अंशोंसे अस्पष्ट हैं । अतः प्रत्यक्षके लक्षण में स्पष्टपद देनेसे ही उनका वारण हो सकता है । किन्तु जब गौणरूपसे द्रव्य अर्थ और आत्माका वेदन करना प्रत्यक्षका लक्षण है, तब तो एक देशसे विशद हो रहे, अर्थावग्रह, ईहा, अवाय, धारणारूप इन्द्रिय अनिन्द्रिय, प्रत्यक्षोंका जो छूटना हो रहा था, उसका निराकरण किया गया है। क्योंकि व्यवहारनयका आश्रय लिया है । अर्थात् मुख्यरूपसे प्रत्यक्ष माननेपर तो इन्द्रियजन्य या मनोजन्य ज्ञानोंको प्रत्यक्ष नहीं मानते हैं । क्योंकि वे पूर्ण अंशों में स्पष्ट नहीं हैं। भले ही वे स्वार्थीको जान रहे हैं। हां, व्यवहारनयकी दृष्टि इन्द्रिय और मनसे उत्पन्न हुआ एक देश विशद मतिज्ञान तो व्यवहारप्रत्यक्ष मान लिया है । इस प्रत्यक्षको ग्रहण करनेके लिये स्पष्ट पदपर मुख्यरूपसे बल नहीं दिया गया है ।
साकारमिति वचनान्निराकारदर्शनव्युदासः । अंजसेति विशेषणद्विभंगज्ञानमिंद्रयानिंद्रियप्रत्यक्षाभासमुत्सारितं । तच्चैवंविधं द्रव्यादिगोचरमेव नान्यदिति विषयविशेषवचनाद्दर्शितं । ततः सूत्रवार्तिकाविरोधः सिद्धो भवति । न चैवं योगिनां प्रत्यक्षम संग्रहीतं यथा परेषां तदुक्तं ।
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प्रत्यक्ष लक्षणको कहनेवाले वार्तिक में साकार इस वचनसे विकल्परहित दर्शनकी व्यावृत्ति करी है । तथा अंजसा इस विशेषणसे विभंगज्ञान और इन्द्रियप्रत्यक्षाभास, मानसप्रत्यक्षाभासका निवारण किया है। ये ज्ञान स्पष्ट हैं, किंतु निर्दोष नहीं हैं। मिथ्याज्ञानपनेसे दूषित हो रहे हैं । सो इस प्रकारका प्रत्यक्षप्रमाण द्रव्य, पर्याय, सामान्य और विशेषस्वरूप हो रहे अर्थको और स्वको ही विषय करनेवाला है । इससे भिन्न केवल विशेष अथवा अकेले सामान्यको जाननेवाला नहीं है । यह बात विषयविशेषके कथन करनेसे दिखला दी गई है । तिस कारण सूत्र और वार्तिकका अविरोध होना सिद्ध हो जाता है। तथा इस प्रकार प्रत्यक्षका लक्षण करनेसे योगी महाराज केवलज्ञानियोंका प्रत्यक्ष असंग्रहीत नहीं हुआ। यानी अतीन्द्रियज्ञानका भी संग्रह हो जाता है । जिस प्रकार कि दूसरे वादियोंने यों कहा था कि " इन्द्रियार्थसन्निकर्षोत्पन्नज्ञानमव्यपदेश्यमव्यभिचारिव्यवसायात्मकं प्रत्यक्षम् "9 यह गौतम सूत्र है । " आत्मेन्द्रियार्थसन्निकर्षाद्यन्निष्पद्यते तदन्यत् ' इन्द्रिय और अर्थ सन्निकर्षसे उत्पन्न हुआ व्यभिचार दोषसे रहित ( भ्रममिन्न) निर्विकल्पक और सविकल्पकरूप ज्ञान प्रत्यक्ष प्रमिति है । यह वैशेषिक या नैयायिकोंका माना गया लक्षण है ।
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तत्वार्थचिन्तामणिः