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तच्चार्थ लोकवार्तिके
सम्यगित्यधिकाराच्च विभंगज्ञानवर्जनं । प्रत्यक्षमिति शब्दाच्च परापेक्षान्निवर्त्तनम् ॥ ३ ॥
अन्यज्ञान प्रत्यक्ष हैं, इस प्रकार ज्ञानके प्रहणका संबंध होजानेसे निराकार केवलदर्शन और अवधिदर्शनका निवारण हो जाता है। क्योंकि वे दर्शन हैं, ज्ञान नहीं । अतः अतिव्याप्ति नहीं हुई । तथा प्रमाणपदका भले प्रकार सम्बन्ध लगा देनेसे अवधि आदिकका अप्रमाणपना खंडित होजाता है । एवं सम्यक्पदका अधिकार चला आनेसे विमंग ( कुअवधि ) का निवारण हो जाता है । तथैव सूत्रमें पडे हुये प्रत्यक्ष इस शब्द करके दूसरोंकी अपेक्षा रखनेवाले परोक्ष ज्ञानसे इस प्रत्यक्षकी व्यावृत्ति हो जाती है अथवा प्रत्यक्षपदसे आत्ममात्रापेक्ष होकर अन्यकी सहायताको नहीं चाहनेवाले प्रत्यक्षज्ञानको दुसरे इन्द्रिय आदिककी अपेक्षा रखनेकी व्यावृत्ति हो जाती है ।
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न क्षमात्मानमेवाश्रितं परभिंद्रियमनिंद्रियं वापेक्षते यतः प्रत्यक्षशब्दादेव परापेक्षानिवृत्तिर्न भवेत् । तेनेंद्रियानिंद्रियानपेक्षमतीतव्यभिचारं साकारग्रहणमित्येतत्सूत्रोपात्त मुक्तं भवति । ततः ।
प्रत्यक्षप्रमाण अक्ष यानी आत्माको ही आश्रय लेकर उत्पन्न होता है, उससे भिन्न इन्द्रिय और मनकी वह अपेक्षा नहीं करता है, जिससे कि प्रत्यक्षशब्द करके ही परकी अपेक्षा रखनेसे निवृत्ति अवधि आदिककी न होय । तिस कारण इन्द्रिय और अनिन्द्रियकी नहीं अपेक्षा रखनेवाला तथा व्यभिचार दोषसे रहित ऐसा सविकल्पक ग्रहण करना प्रत्यक्ष है । इस प्रकार इस सूत्र से ही ग्रहण किया गया अर्थ श्री अकलंकदेव द्वारा राजवार्तिकमें कह दिया गया है । तिस हेतुसे
प्रत्यक्षलक्षणं प्राहुः स्पष्टं साकारमंजसा । द्रव्यपर्यायसामान्यविशेषार्थात्मवेदनम् ॥ ४ ॥ सूत्रकारा इति ज्ञेयमा कलंकावबोधने । प्रधानगुणभावेन लक्षणस्याभिधानतः ॥ ५ ॥
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सूत्र बनानेवाले श्रीउमास्वामी महाराज प्रत्यक्षका लक्षण इस प्रकार बढिया कहते हैं श्री अकलंकदेवके वार्त्तिकों द्वारा समझानेमें यही आता है कि स्पष्ट और सविकल्प तथा व्यभिचार आदि दोषरहित होकर सामान्यरूप द्रव्य और विशेषरूप पर्याय अर्थोको तथा अपने स्वरूपको जानना ही प्रत्यक्षका लक्षण है । उक्त विशेषणोंसे परोक्षज्ञान, दर्शन, विमंग इनकी व्यावृत्तियां हो जाती है। क्योंकि प्रधानपने और गौणपनेसे लक्षणका कथन किया है ।