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तत्वार्थचिन्तामणिः
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यहां एक शंका है कि सूत्रकारको बहुवचनका प्रयोग करते हुये तीन प्रमाण प्रत्यक्ष हैं। ऐसा जस् विभक्तिवाले प्रत्यक्षाणि, अन्यानि, ऐसे पद बोलने चाहिये थे । क्योंकि अवधि आदिक तीनको भिन्न प्रकारसे प्रत्यक्षोंका विधान किया है। अब श्रीविद्यानंद आचार्य कहते हैं कि इस प्रकार तो शंका नहीं करनी चाहिये, जिस कारणसे कि
प्रत्यक्षमन्यदित्याह परोक्षादुदितात्परं ।
अवध्यादित्रयं ज्ञानं प्रमाणं चानुवृत्तितः ॥१॥
ज्ञान और प्रमाणं ऐसे एक वचनान्त दो पदोंकी पूर्वसूत्रोंसे अनुवृत्ति हो रही है । इस कारण उक्त परोक्षसे अन्य बचा हुआ अवधि आदिक तीन अवयवोंका समुदायज्ञान प्रत्यक्ष है । अतः अन्यज्ञान प्रत्यक्ष है, इस प्रकार श्रीउमास्वामी महाराज कहते हैं । जातिकी अपेक्षा एक वचन प्रसिद्ध हो रहा है, जैसे कि गेंहू महा है। चावल अखरा है । ज्ञानं ऐसे एक वचनकी अनुवृत्तिसे उद्देश्य और विधेयपदमें एक वचन करना पडा है । " आये परोक्षम् " सूत्रमें यदि आचं कह दिया जाता है तो अकेले मतिज्ञानको ही परोक्षपना आता, श्रुतज्ञान प्रत्यक्ष बन बैठता । अतः उपस्थिति, प्रमाण, अर्थ और गुणकी अपेक्षा लाघव होनेसे इस सूत्रमें एकवचन किया है । बहुवचन करके सूत्रका बोझ बढाना व्यर्थ है।
उक्तात्परोक्षादवशिष्टमन्यत्सत्यक्षमवधिज्ञानं मनःपर्ययज्ञानं केवलज्ञानमिति संबध्यते ज्ञानमित्यनुवर्तनात् । प्रमाणमिति च तस्यानुवृत्तेः। ततो न प्रत्यक्षाण्यन्यानीति वक्तव्यं विशेषानाश्रयात् सामान्याश्रयणादेवेष्टविशेषसिद्धेग्रन्थगौरवपरिहाराच्च ।
पूर्वमें कहे गये परोक्षज्ञानसे जो भिन्न सम्यग्ज्ञान अवशिष्ट रह गया है, वह प्रत्यक्ष है। इस प्रकार ज्ञानकी अनुवृत्ति करनेसे अवधिज्ञान, मनःपर्ययज्ञान और केवलज्ञान इनका यहां सम्बन्ध हो जाता है । और मति, श्रुत आदि सूत्रसे या " तत्प्रमाणे" सूत्रमेंसे तत्पदवाच्य ज्ञानके अनुसार एक वचन ' प्रमाणं ' इस प्रकार उसकी अनुवृत्ति हो रही है । अतः इस सूत्रका एक वचनांत प्रयोग करना युक्त है । तिस कारण विशेष व्यक्तियोंके कहनेका आश्रय नहीं करनेसे बहुवचनवाले " प्रत्यक्षाणि अन्यानि ” इस प्रकार- नहीं कहना चाहिये । क्योंकि प्रकरणमें एक सामान्यका आश्रय लेनेसे ही हमारे अभीष्ट विशेषकी सिद्धि हो जाती है। तथा बहुवचन प्रयोगसे होनेवाले ग्रन्थके गौरवका भी परिहार हो जाता है ।
ज्ञानग्रहणसंबंधात्केवलावधिदर्शने । व्युदस्यते प्रमाणाभिसंबंधादप्रमाणता ॥२॥