________________
तत्वार्थ लोकवार्तिके
आदि मिथ्याज्ञान हैं । यह पूर्वसूत्रसे प्रकृतसूत्रमें प्रमाणपदकी अनुवृत्ति करनेसे सिद्ध हो जाता है । भावार्थ – प्रमाणस्वरूप मतिज्ञान और श्रुतज्ञान दोनों परोक्ष प्रमाण हैं। जो अप्रमाण हैं वे तदाभास हैं । शिष्टों और दुष्टोंका जोडा सदासे चला आरहा है । विचारशील पुरुषके पास उपादेय और हेय अर्थको जाननेके लिये मनीषा विद्यमान है ।
१७२
इस सूत्र का सारांश |
I
इस सूत्र में ये प्रकरण हैं । प्रथम ही परोक्ष शद्वकी निरुक्ति कर मतिज्ञानको मुख्य आद्यपना और श्रुतको गौणरूपसे आधपना साधा है । बुद्धिमें तिरछा फैलानेसे मुख्यता करके भी दोनोंमें आद्यपना है । आद्ये द्विवचनके साथ परोक्षं एक वचनका उद्देश्य विधेयभाव पुष्ट किया है । साधुका कार्य क्या है, ऐसा प्रश्न होनेपर तपस्या करना और शास्त्राभ्यास करना, ये दो कर्त्तव्य बताये जा सकते हैं । " चत्वारोऽनुयोगाः प्रमाणं " चार अनुयोग समानतासे एक प्रमाणरूप हैं । ऐसे अनेक प्रयोग देखे जारहे हैं । अज्ञान पदार्थ परोक्ष नहीं है । और परोक्षज्ञान अप्रमाण भी नहीं है । यह सूत्र के उद्देश्य विधेय दलोंकी सार्थकता है । पुनः परोक्षज्ञानको निरालम्ब माननेवाले बौद्धोंके मतका निराकरण किया है । प्राप्य और आलम्बन दो कारण मानना व्यर्थ है । अर्थकी ज्ञप्ति करा देना ही ज्ञानमें प्रापकता है । सुमेरु, समुद्र, स्वर्ग, आदिका श्रुतज्ञान उन अर्थोका ज्ञाताकी गोद में नहीं प्राप्त 1 करा देता है । अतः विषयको ज्ञानका अवलम्ब कारण भले ही मानलो जैसे कि अव्यक्त चन्द्रमाको देखने के लिये वृक्ष, शाखा, या बादलोंका अवलम्ब ले लेते हैं । अविशद रूपसे अर्थोको जाननेवाला.. 1 परोक्षज्ञान भी सालम्बन है । मिथ्याज्ञान अनेक प्रकार के होते हैं । अपने अपने देश और कालमें वर्त्त रहे अर्थोको जाननेवाला ज्ञान अर्थवान् हो जाय, कोई क्षति नहीं है । अकेला सामान्य या विशेष कोई वस्तु नहीं है । प्रत्यक्ष और परोक्ष दोनों ही सामान्य विशेष आत्मक वस्तुको स्पष्ट और अस्पष्ट रूपसे प्रकाशित कर रहे हैं ।
मेरुवत्तुङ्गता मत्यां श्रुते गाम्भीर्यमब्धिवत् । स्वान्यप्रकाशके भातां परोक्षे सविकल्पके ।
101
दूसरे प्रत्यक्षप्रमाणके उद्देश्य अंशको प्रकट करनेके लिये श्रीउमास्वामी महाराज अग्रिम सूत्रो कहते हैं ।
प्रत्यक्षमन्यत् ॥ १२ ॥
दो मति, श्रुत, ज्ञानोंसे अन्य बचे हुये अवधि, मन:पर्यय और केवलज्ञान ये प्रत्यक्ष प्रमाण हैं । ननु च प्रत्यक्षाण्यन्यानीति वक्तव्यमवध्यादीनां त्रयाणां प्रत्यक्षविधानादिति न शंकनीयं । यस्मात् —