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तावार्थचिन्तामणिः
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तस्माद्वस्त्वेव सामान्यविशेषात्मकमंजसा । विषयीकुरुतेध्यक्षं यथा तद्वच लैंगिकम् ॥२४॥
आप बौद्ध यों कैसे कह देते हैं कि अनुमान प्रमाण अवस्तुभूत सामान्यको ही अवलम्ब ( विषय ) करता है। किन्तु अर्थको प्राप्त करा देता है । इस प्रकार यह पक्षपातकी बातको कह रहा सहृदय बौद्ध आज नहीं छूट सकेगा । अर्थात् अनुमानके समान प्रत्यक्ष भी अवस्तुको आलंबन करता हुआ अर्थको प्राप्त करा देगा। फिर प्रत्यक्षको सावलम्बन क्यों माना जाता है । तिस कारण परिशेषमें यही सिद्ध होगा कि सामान्य विशेष आत्मक वस्तुको ही निर्दोषरूषसे जैसे प्रत्यक्ष विषय करता है। उसीके समान लिंगजन्य अनुमान प्रमाण भी सामान्य विशेष आत्मक वस्तुको ही विषय करता है।
सर्वे हि वस्तु सामान्यविशेषात्मकं सिद्धं वयवस्थापयत्सत्यक्षं यथा तदेव विषयीकुरुते तथानुमानमपि विशेषाभावात् । तथा सति
जिस कारणसे कि सम्पूर्ण वस्तुयें सामान्य विशेष उभय आत्मक सिद्ध हो रही हैं । अनुगत आकार और व्यावृत्त आकार पदार्थोमें पाये जाते हैं । तिस कारण उन वस्तुओंकी व्यवस्था करता हुआ प्रत्यक्ष जिस प्रकार उस वस्तुको ही विषय करता है, तिसी प्रकार अनुमान भी उसी उत्पाद, व्यय, धौव्यस्वरूप सामान्य विशेषात्मक वस्तुको जानता है। कोई अंतर नहीं है । और ,तिस प्रकार सिद्ध हो जानेपर
स्मृत्यादिश्रुतपर्यंतमस्पष्टमपि तत्त्वतः ।
वार्थालंबनमित्यर्थशून्यं तन्निभमेव नः ॥२५॥
स्मृतिको आदि लेकर श्रुतज्ञानपर्यंत परोक्षज्ञान वस्तुतः अस्पष्ट ही हैं तो भी स्वयं अपनेको और अर्थको आलंबन करनेवाले हैं, यह सिद्ध हुआ। हां, जो ज्ञान अपने ग्राह्य विषयसे रहित है, वह हम स्याद्वादियोंके यहां तदामास ही माना गया है । यहां भी स्मृत्यादि शद्बमें तत्पुरुष और बहुवीहिसमास करनेसे अवग्रह ईहा, अवाय, धारणा तथा स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क, अनुमान, आगम, ये आगे पीछे होनेवाले सभी वस्तुतः परोक्ष ज्ञानोंका संग्रह हो जाता है।
यदर्थालंबनं परोक्षं तत्पमाणमितरत्प्रमाणामासमिति प्रमाणस्यानुवर्त्तनात्सिद्धं ।
जो परोक्षज्ञान वास्तविक अर्थको विषय करता है, वह प्रमाण है और जो उससे भिन्नज्ञान ठीक अर्थको आलंबन नहीं करता है, वह प्रमाणाभास है, जैसे कि देवदत्तमें यज्ञदत्तका स्मरण करना या उसके सदृशको वही कहना अथवा सरोवरमें उठती भापको धुआं समझकर उससे अग्निका ज्ञान करना । एवं शद्वका अन्य प्रकार अर्थ करना ये सब स्मरणाभास, प्रत्यभिज्ञानाभास,