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तत्वार्थचिन्तामणिः
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तिस कारण इस बौद्धके यहां अनुमान और अनुमानामासकी व्यवस्था नहीं हो सकी । जिस कार्यको मणि करती है, उससे कुछ कमती कार्यको मणिप्रभा कर देती है । दीपकी प्रभा भी थोडेसे कार्यको कर देती है। वस्तुतः विचारा जाय तो मणि आदिकका कार्य सर्वथा न्यारा न्यारा है। किन्तु सामान्यको विषय करनेवाले अनुमान प्रमाणकी व्यवस्था करनेवाले बौद्धोंके यहां भेद रूपसे उक्त निर्णय नहीं बन पाता है । मिथ्या अनुमान और सम्यक् अनुमान सब एकसे हो जाते हैं।
दृष्टं यदेव तत्माप्तमित्येकत्वाविरोधतः। प्रत्यक्षं कस्यचित् तचेन्न स्याद्मांतं विरोधतः ॥ १८ ॥
जो ही पदार्थ देखा गया वही पदार्थ यदि प्राप्त किया जाय, इस प्रकार एकपनेके अविरोधसे किसीका भी प्रत्यक्ष होना यदि मानोगे वह तो भ्रान्तज्ञान न हो सकेगा। क्योंकि विरोध है । अर्थात्-मणिप्रभामें हुआ भ्रान्त मणिज्ञान प्रत्यक्ष प्रमाण नहीं है। जो मणि जानी गई है, वह हाथमें प्राप्त नहीं हुई है । दूसरी बात यह है कि क्षणवर्ती पदार्थोको माननेवाले बौद्धोंके यहां पहले क्षणमें जानकर दूसरे क्षणमे अभिलाषा कर तीसरे क्षणमें प्रवृत्ति करना चौथे क्षणमें प्राप्ति कराना ऐसी क्रियायें क्षणिक ज्ञानसे होना असम्भव है । अर्थकी प्राप्ति करा देनेसे ज्ञानमें प्रमाणपना नहीं माना गया है । ज्ञानमें हेय, उपादेय, अर्थका प्रदर्शकपना ही प्रापकपना है। अन्यथा सूर्य, चंद्र आदि के ज्ञानमें या सर्वज्ञज्ञानमें प्रामाण्य दुर्लम हो जायगा।
प्रत्यक्षमभ्रान्तमिति खयमुपयन् कथं भ्रांतं ज्ञानं प्रत्यक्षं सन्निदर्शनं ब्रूयात् ।।
भ्रान्तिरहित प्रत्यक्ष होता है, इस बातको स्वयं स्वीकार कर रहा बौद्ध भला मणिप्रभाके भ्रान्त ज्ञानको प्रत्यक्ष प्रमाणका समीचीन दृष्टांत कैसे कह सकेगा ! अर्थात् नहीं। सज्जनोंके दृष्टान्त दुर्जन नहीं होते हैं।
अप्रमाणत्वपक्षेपि तस्य दृष्टांतता क्षतिः। प्रमाणांतरता यांतु संख्या न व्यवतिष्ठते ॥ १९ ॥ ततः सालंबनं सिद्धमनुमानं प्रमात्वतः। प्रत्यक्षवद्विपर्यासो वान्यथा स्यादरात्मनाम् ॥२०॥
उस मणिप्रभामें हुए मणिज्ञानको यदि अप्रमाण माना जायगा तो भी उसको दृष्टान्तपनेकी क्षति होगी। प्रत्यक्ष आदिसे अन्य निराला प्रमाण माननेपर तो संख्या नहीं व्यवस्थित होती है। तिस कारण अनुमानप्रमाण आलंबनसहित सिद्ध हुआ । क्योंकि वह प्रमाण ज्ञान है। जैसे कि प्रत्यक्षवान अपने ग्राह्य विषयसे सहित है । अन्यथा प्रतिकूल भी हो जाओ, यानी दुराग्रही जीवोंके
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