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तत्वार्थ होकवार्तिके
भामण्डलकी कान्ति भी अनेक सूर्योकी दीप्तिको अतिक्रान्त कर देती है । अतः सम्बन्ध के होनेपर भी यदि प्रमाणता मान ली जायगी, तो कुंजी के छेदकी मणिप्रभामें हुये मणिज्ञानको प्रमाणपनेका प्रसंग . आता है। यहां उस परम्परासे अर्थके साथ संबंध होनेका कोई अन्तर नहीं है।
तच्चानुमानमिष्टं चेन्न दृष्टांतः प्रसिध्यति । प्रमाणत्वव्यवस्थानेनुमानस्यार्थलब्धितः ॥ १५ ॥
वह मणिप्रभा हुआ मणिज्ञान यदि अनुमान प्रमाण माना जायगा तब तो अर्थकी प्राप्तिसे अनुमानको प्रमाणपनकी व्यवस्था करनेमें कोई दृष्टान्त प्रसिद्ध नहीं होता है। अर्थात् अनुमान (पक्ष) प्रमाण है ( साध्य ) अर्थकी प्राप्ति होनेसे ( हेतु ), जैसे कि मणिप्रभा में मणिज्ञान ( दृष्टान्त ) इस अनुमानका दृष्टान्त समीचीन नहीं है। ऐसी झूठी बातोंसे बौद्ध अनुमानमें प्रवर्तकपना नहीं सिद्ध कर सकते हैं । अनुमान स्वयं अपना दृष्टान्त नहीं बन सकता है ।
न हि स्वयमनुमानं मणिप्रभायां मणिज्ञानमर्थप्राप्तितोनुपानुस्य प्रमाणत्वव्यवस्थितौ दृष्टांतो नाम साध्यवैकल्याचथा ।
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अर्थकी प्राप्तिसे अनुमानको प्रमाणपनकी व्यवस्था करनेमें वह मणिज्ञान तो दृष्टान्त नहीं हो सकता है । जो कि मणिप्रभामें हुआ मणिज्ञान स्वयं अनुमान प्रमाणमान लिया गया है । क्योंकि यह दृष्टान्तं साध्यसे विकल है। अर्थात् झूठे मणिज्ञानमें प्रमाणपना नहीं है । तथा दूसरी बातें यह भी है:
मणिप्रदीपप्रभयोर्मणिबुद्धयाभिधावतोः । मिथ्याज्ञानाविशेषेपि विशेषोर्थक्रियां प्रति ॥ १६ ॥ यथा तथा यथार्थत्वेप्यनुमानं तदोभयोः । नार्थक्रियानुरोधेन प्रमाणत्वं व्यवस्थितम् ॥ १७ ॥
कुञ्जी छेदकी मणिप्रभा एक व्यक्तिको मणिज्ञान हुआ। दूसरेको दीपककी प्रभामें मणिज्ञान हुआ। दोनों ही ज्ञान भ्रान्त हैं। यहां मणिकी प्रभामें मणिबुद्धिसे और दीपककी प्रभा (ख) में मणिकी बुद्धिसे अर्थप्राप्ति के लिये उस ओर दौडनेवाले दो पुरुषोंको मिथ्याज्ञानका अविशेष होते
ये भी अर्थक्रिया प्रति विशेषता जैसी मानी जाती है, उसी प्रकार यथार्थपना होते हुये भी अनुमान ज्ञान प्रमाण है । उस समय विषयसहित होनेके कारण प्रत्यक्ष और अनुमान दोनोंको प्रमाणपना है । अर्थक्रिया के अनुसार अनुरोध करके प्रमाणपना व्यवस्थित नहीं हुआ ।
ततो नास्यानुमानतदाभासव्यवस्था ।