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तत्वार्थ लोकवार्तिक
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किं पुनस्तदनुवर्तनात्सिद्धमित्याह ।
फिर उस ज्ञानकी अनुवृत्ति करनेसे क्या सिद्ध करना है ? ऐसी आकांक्षा होनेपर प्रन्धकार श्रीविद्यानन्द आचार्य स्पष्ट उत्तर कहते हैं।
ज्ञानानुवर्तनात्तत्र नाज्ञानस्य परोक्षता । प्रमाणस्यानुवृत्तेर्न परोक्षस्याप्रमाणता ॥ ६ ॥ अक्षेभ्यो हि परावृत्तं परोक्षं श्रुतमिष्यते ।
यथा तथा स्मृति: संज्ञा चिंता चाभिनिबोधिकम् ॥ ७ ॥ अवग्रहादिविज्ञानमक्षादात्मविधानतः ।
परावृत्ततयाम्नातं प्रत्यक्षमपि देशतः ॥ ८ ॥
तिस सूत्रमें आदिके दो ज्ञान परोक्ष हैं। यहां ज्ञानकी अनुवृत्ति करनेसे अज्ञान, इन्द्रिय, संनिकर्ष, आदि जड पदार्थोंको परोक्षप्रमाणपना नहीं सिद्ध हो पाता है। और प्रमाणकी अनुवृत्ति करने से परोक्षको अप्रमाणपना नहीं सिद्ध हो पाता है । जिस कारणसे कि इन्द्रियोंसे परावृत्त होता हुआ श्रुतज्ञान परोक्ष इष्ट किया गया है, तिस प्रकार स्मरण, प्रत्यभिज्ञान, तर्क और अनुमान भी परोक्ष हैं । अक्षशब्दका अर्थ आत्मा करनेसे आत्मासे परावृत्त होनेके कारण अवग्रह आदिक विज्ञान यद्यपि पूर्वाचार्योंके सम्प्रदाय अनुसार परोक्ष कहे गये हैं, फिर भी एकदेश विशद होनेसे प्रत्यक्ष भी हैं। अक्षका अर्थ इन्द्रिय और अनिन्द्रिय भी ले लिया जाता है । किन्तु विशदपना रहना प्रत्यक्षके लिये आवश्यक है ।
श्रुतं स्मृत्याद्यवग्रहादि च ज्ञानमेव परोक्षं यस्मादाम्नातं तस्मान्नाज्ञानं शखादिपरोक्षमनधिगममात्रं वा प्रतीतिविरोषात् ।
जिस कारण श्रुतज्ञान, स्मृति आदिक और अत्रग्रह आदिक ज्ञान ही परोक्ष हैं, ऐसा पूर्व आम्नाय से प्राप्त हो रहा है, तिस ही कारण शब्द, इन्द्रिय, संनिकर्ष, आदि अज्ञान पदार्थ परोक्ष नहीं हैं । अथवा किसी स्वपर प्रमेयका अधिगम नहीं होना ( प्रसज्य ) भी परोक्ष नहीं है। क्योंकि जड या ज्ञानशून्य तुच्छ को परोक्ष प्रमाण माननेपर प्रतीतिओंसे विरोध आता है।
अस्पष्टं वेदनं केचिदर्थानालंबनं विदुः । मनोराज्यादि विज्ञानं यथैवेत्येव दुर्घटम् ॥ ९ ॥ स्पष्टस्याप्यवबोधस्य निरालंबनताष्ठितः । यथा चंद्रद्रयज्ञानस्येति कार्थस्य निष्ठितः ॥ १० ॥