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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
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अथवा एक यह भी उपाय है कि बुद्धिमें तिरछा अवस्थित करदेनेसे इन मति, श्रुत, दोनोंको अवधि आदि तीनकी अपेक्षा रखता हुआ कथंचित् मुख्य आधपना विरुद्ध नहीं पडता है । अर्थात् -अवधि आदिक तीन की अपेक्षा बुद्धि में तिरछा फैलानेसे मति श्रुतको आदिपना बन जाता है।
परोक्ष इति वक्तव्यमाये इत्यनेन सामानाधिकरण्यादिति चेत् । अत्रोच्यते
शंका है कि उद्देश्यके समान विधेयमें संख्या होनी चाहिये । जब कि आये ऐसा द्विवचनान्त प्रयोग है, तो इसके साथ समान अधिकरणपना होनेसे परोक्षे इस प्रकार द्विवचनान्त प्रयोग सूत्रमें कहना चाहिये । लिंग, संख्या और वचनके समान होनेपर ही सामानाधिकरण्य बढ़िया बनता है। ऐसी शंका होनेपर यहां समाधान कहा जाता है।
परोक्षमिति निर्देशो ज्ञानमित्यनुवर्तनात् । ततो मतिश्रुते ज्ञानं परोक्षमिति निर्णयः ॥३॥ द्वयोरेकेन नायुक्ता समानाश्रयता यथा । । गोदौ ग्राम इति प्रायः प्रयोगस्योपलक्षणात् ॥ ४ ॥ प्रमाणे इति वा द्वित्वे प्रतिज्ञाते प्रमाणयोः।
प्रमाणमिति वर्तेत परोक्षमिति संगतौ ॥५॥
यहां मति आदि सूत्रमें पडे हुये विधेय दलके " ज्ञान " इस पदकी अनुवृत्ति हो रही है। वह एक वचन है । नपुंसक लिंग है । इस कारण ज्ञानके समान अधिकरणपनेसे परोक्षं ऐसा एक वचन निर्देश सूत्रमें कहा है । तिस कारण मति और श्रुत दो ज्ञान परोक्ष हैं, इस प्रकार निर्णय हो जाता है । दो उद्देश्योंका भी एक विधेयके साथ समानाधिकरणपना अयुक्त नहीं है, जैसे कि " गोदौ ग्रामः " " पश्चालाः जनपदः " " तपःश्रुते साधोः कार्य "। गौदी ( गोद ) नामके दो हद हैं, उन दोनोंके निकट होनेवाला ग्राम है । वह एक ग्राम गोदी है। यहां प्राम शब्द जाति वाचक है । गोदौके समान द्विवचन नहीं हुआ। हां, जातिवाचक न होता तो उसके लिंग और संख्या अवश्य प्राप्त होते, जैसे कि गोदौ रमणीयौ " । जैनेन्द्र व्याकरणके " युक्तवदुसिलिंगसंख्ये" इस सूत्रों अजातेः ऐसा वक्तव्य है । अतः ग्राम: एक वचन है । इस प्रकारके बाहुल्यपनेसे प्रयोगोंका उपलक्षण हो रहा है । यदि "प्रमाणे" ऐसे द्विवचनान्त प्रयोगकी प्रतिज्ञा की जायगी, तो फिर भी दो मति श्रुत प्रमाणोमें एक वचन प्रमाणको अनुवृत्ति की जायगी, तभी परोक्ष प्रमाणके साथ मति और श्रुत संगत हो सकते हैं । भावार्थ-~-आये परोक्षे कहना, फिर परोक्षे प्रमाणं कहना इसकी अपेक्षा प्रथमसे ही " आधे परोक्षम् " कहना अच्छा है । इसमें लाघव है, सूत्रमें लघुपना बहुत प्रशंसनीय गुण है।