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तत्वार्थ लोकवार्तिके
जिस कारण से कि सूत्रकार श्री उमास्वामी महाराजने आदिके दो ज्ञान परोक्ष हैं, ऐसा सूत्र कहा है, तिस कारण "मतिश्रुत ” आदि सूत्रके पठनक्रमसे यहां पहिले दो को आदिपना जानना चाहिये । और वह आदिपना मतिज्ञानको तो मुख्य है । क्योंकि उस मतिज्ञानमें तो कैसे भी आदि में नहीं होनेपनका अभाव है। हां, उसके निकटवाले श्रुतज्ञानको आद्यपना गौणरूपसे है । उपचारको नहीं प्राप्त हुये यानी मुख्यरूपसे आदि में पडे हुये मतिज्ञानकी समीपता से श्रुतको आद्यपनका उपचार करलिया गया है। यदि कोई यों कहे कि अवधि आदिककी अपेक्षासे तो उस श्रुतज्ञानको मुख्यरूप से आद्यपना बन जाता है, ग्रन्थकार कहते हैं कि यह तो न कहना। क्योंकि यों तो मन:पर्यय आदिकी अपेक्षा अवधिको भी आद्यपना सिद्ध हो जावेगा । और ऐसा होनेपर मति और अवधि इन दोके ग्रहण करनेका प्रसंग होगा। आये शद्वको द्विवचनरूपसे कथन करनेका भी इस प्रकार कोई विरोध नहीं आता है । अतः अपेक्षाको टालकर ठीक ठीक आदिमें या उपचार से आदिमें हुओंका ग्रहण करना चाहिये । अन्योंका नहीं ।
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केवलापेक्षया सर्वेषामाद्यत्वेपि मत्यादीनां मतिश्रुतयोरिह संप्रत्ययः साहचर्यादिति चेन्न, मत्यपेक्षया श्रुतादीनामनाद्यताया अपि सद्भावान्मुख्याद्यतानुपपत्तेस्तदवस्थत्वात् ।
कोई विद्वान् य सन्तोष देना चाहते हैं कि केवलज्ञानकी अपेक्षासे तो सब चारों मति आदि ज्ञानों को आद्यपना होते हुये भी मति आदिकोंमेंसे मति और श्रुतका ही यहां समीचीन ज्ञान हो जाता है। क्योंकि पांच ज्ञानोंमेंसे मति और श्रुत ये दो ही ज्ञान साथ रहते हैं । अन्य दो ज्ञानों के सहचर रहनेका नियम नहीं है । आचार्य कहते हैं कि यह समाधान तो नहीं कहना। क्योंकि यों तो मतिकी ही अपेक्षाले विचारा जाय तो श्रुत आदिकोंको आधरहितपना भी विद्यमान है । अतः श्रुत आदिकोंको मुख्यरूपसे आद्यपनेकी असिद्धि होना वैसा ही तदवस्थ रहा। आदिमें होनेपनका निर्णय करने के लिये सहचरपना प्रयोजक नहीं है ।
आद्यशद्धो हि यदाद्यमेव तत्प्रवर्तमानो मुख्यः, यत्पुनराद्यमनाद्यं च कथंचित्तत्र प्रवर्तमानो गौण इति न्यायात्तस्य गुणभावादाद्यता क्रमार्पणायाम् ।
जो आदिमें ही हो रहा है, उसीमें आध शब्द प्रवर्त्त रहा तो मुख्य है, और जो पदार्थ फिर किसी अपेक्षासे आद्य और अनाद्य भी है, उसमें प्रवर्त रहा आद्य शब्द गौण है । इस न्यायसे उस श्रुतज्ञानको गौणभावसे आद्यपना है। क्योंकि सूत्रमें पढे गये पाठके क्रमकी विवक्षा हो रही है । अतः द्विवचनान्त प्रयोगसे आधे शद्वकरके मतिश्रुत पकडे जाते हैं ।
बुद्ध तिर्यगवस्थानान्मुख्यं वाद्यत्वमेतयोः । अवध्यादित्र्यापेक्षं कथंचिन्न विरुध्यते ॥ २ ॥