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तलापितामणिः
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कोई बौद्ध कह रहे हैं कि अविशद परोक्षज्ञान वास्तविक अर्थको विषय करनेवाला नहीं है। जिस ही प्रकार क्रीडा करते हुये बालकों द्वारा अपने मन अनुसार स्वांग रचे हुये राजा, सेनापति, मंत्रि, आदिके अविशदज्ञान उन वस्तुभूत राजा आदिकको विषय नहीं करते हैं। उसी ढंगसे सभी अविशदज्ञान अर्थको विषय नहीं करते हुये निराळंब हैं । आचार्य कहते हैं कि इस प्रकार बौद्धोंका कहना दुर्घट ही है। यानी यह युक्तियोंसे घटित नहीं होपाता है। क्योंकि यों तो विशद प्रत्यक्षज्ञानको भी आलम्बनरहितपनेका प्रसंग होता है । जिस प्रकार कि एक चन्द्रमामें हुये चन्द्रद्वयका ज्ञान आलम्बनरहित है, अर्थात् झूठे मनोराज्यको विषय करनेवाले परोक्षज्ञानका दृष्टान्त देकर यदि सभी परोक्षज्ञानको निरालम्ब ( विषयको न छूनेवाले ) कह दिया जायगा तो आंखमें नैक अंगुली लगाकर अविद्यमान दो चन्द्रोंको देखनेवाले चाक्षुष प्रत्यक्षका दृष्टान्त देकर सम्पूर्ण प्रत्यक्षज्ञानोंको भी निर्विषय कहा जासकता है । ऐसा होनेपर भला अर्थका प्रतिष्ठितपना कहां किस ज्ञानके द्वारा समझा जायगा ! बताओ । भ्रान्तज्ञानोंको अभ्रान्तज्ञानोंसे पृथग्भूत मानना अनिवार्य है।
परोक्षं ज्ञानमनालंबनमस्पष्टत्वान्मनोराज्यादिज्ञानवत् अतो न प्रमाणमित्येतदपि दुर्घटमेव । प्रत्यक्षमनालंबनं स्पष्टत्वाचंद्रद्वयज्ञानादिति तस्याप्यप्रमाणत्वप्रसंगात् । तथा च केष्टस्य व्यवस्था उपायासत्त्वात् ॥
__ सम्पूर्ण परोक्षज्ञान (पक्ष ) जानने योग्य विषयोंसे रहित हैं ( साध्य )। क्योंकि वे अविशदरूपसे जाननेवाले हैं (हेतु) । जैसे कि कोई खिलाडी बालक या स्वांग रचनेवाला बहुरूपिया अथवा नाटकमें अभिनय करनेवाला पुरुष अपने मनमें राज्य प्राप्त हुआ आदि समझ बैठे । वह ज्ञान वास्तविक राज्य आदि वस्तुओंको स्पर्श करनेवाला नहीं है । इस कारण कोई भी परोक्षज्ञान प्रमाण नहीं है । आचार्य कहते हैं, इस प्रकार यह कहना भी दुर्घट ही है । क्योंकि यों तो प्रत्यक्ष (पक्ष ) अपने प्राय विषयको स्पर्श नहीं करता है ( साध्य )। स्पष्टज्ञान होनेसे ( हेतु )। जैसे कि चन्द्रद्वयका या पीतशंखका और सीपमें दुये चांदीका ज्ञान स्पष्ट होता हुआ भी निर्विषय है। इस प्रकार पोलमोलसे अनुमान द्वारा उस तुम्हारे माने हुये प्रत्यक्षको भी अप्रमाणपनेका प्रसंग होता है।
और तिस प्रकार होनेपर अपने अमीष्ट तत्त्वकी व्यवस्था कहां किस प्रमाण हो सकेगी ! क्योंकि उपाय तस्त्र प्रत्यक्ष या परोक्ष प्रमाण कोई भी तुम्हारे पास विद्यमान नहीं है।
अनालंबनताव्यातिन स्पष्टत्वस्य ते यथा। अस्पष्टत्वस्य तद्विद्धि लैंगिकस्यार्थवत्त्वतः ॥ ११ ॥ तस्यानाश्रयत्वेथे स्यात्मवर्तकता कुतः। संबंधाचेन्न तस्यापि तथात्वेनुपपचितः ॥ १२ ॥