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तत्वार्थचिन्तामणिः
mahakaadaaree
चलनेवाले विमानोंकी अपेक्षा दौडती हुई डांक गाडीका भी पटरीपर आपेक्षिक ठहरना कहना पडेगा। अन्य कोई उपाय नहीं है । शीघ्रगमन और मन्थरगमनका अन्तर डालनेवाली दूसरी कोई परिभाषा नहीं हो सकती है । इसी प्रकार प्रमाणोंमें भी प्रमाणता और अप्रमाणता जडी हुई है । इन्द्रियजन्य ज्ञानोंमें और श्रुतज्ञानोंमें अप्रमाणताका अंश स्पष्ट दीख रहा है, जिसमें बहुतसा अंश प्रमाणपनेका है, वह प्रमाणज्ञान है । और जिसमें बहुभाग अप्रमाणता भरी हुयी है, वह अप्रमाण है । अतः भरपूर प्रमाण ही या अप्रमाण ही ज्ञान होनेका एकान्त करना समुचित नहीं है । यह श्रीविद्यानन्द आचार्यका स्वतंत्र विचार प्रशस्त है । सभी ज्ञान स्वको जाननेमें प्रमाण हैं । एक ज्ञानमें प्रमाणपना और अप्रमाणपना धर्म विरुद्ध नहीं हैं । यहां बुद्धमतके ऊपर विचार किया है । सर्वत्र अनेकान्त फैला हुआ है। ईश्वरका एक ज्ञान अनेक आकारवाला प्रसिद्ध है । क्रमवर्ती ज्ञानोंसे सर्वज्ञता नहीं है । स्याद्वादके ऊपर उलाहना देनेवाले स्वयं प्रस्त हो जाते हैं । बौद्धोंके यहां प्रमाणका लक्षण समीचीन नहीं है, उनसे अविसम्वादकी ठीक ठीक परिभाषा न हो सकी। युक्तिसिद्ध ही पदार्थीको माननेवाला वादी शास्त्रमें कहे गये तत्त्वोंका श्रद्धान नहीं कर सकता है । स्वप्न ज्ञानमें अतिव्याप्ति हो जानेसे प्रमाणका लक्षण आकांक्षानिवृत्तिरूप अविसंवाद ठीक नहीं है । अव्याप्ति, असंभव, दोष भी आते हैं । अज्ञात अर्थका प्रकाश करना यह प्रमाणका लक्षण भी ठीक नहीं है। प्रत्यक्षको मुख्यप्रमाण और अनुमानको गौण प्रमाण माननेसे बौद्धका कार्य नहीं चल सकता है। मीमांसकोंका माना हुआ प्रमाणका लक्षण भी ठीक नहीं है । अनेक दोष आते हैं । स्मृति, प्रत्यभिज्ञान और तर्क ये कथंचित् पूर्व अर्थको जानते हुए भी प्रमाण माने गये हैं। पर्याय और पर्यायीका कथंचित् अभेद है । स्व और अर्थका निर्णय करनेवाला ज्ञान प्रमाण हैं । इतने लक्षणसे ही कार्य चल जाता है । अन्य विशेषण लगाना व्यर्थ है। अधिक भूलमें पड जानेवाला अनेक उपाधियोंको लगा लेता है। असुन्दर पुरुष अधिक, आभूषणोंको पहनता है । बाधवर्जितपना विशेषण भी व्यर्थ है । अन्यथा बडा टंटा लग जायगा । निर्दोष कारणोंसे बनाया गयापन भी व्यर्थ है। अनवस्था दोष आता है । सम्पूर्ण प्रमाणोंकी प्रमाणता स्वतः ही माननेवाले मीमांसकोंका पक्ष समीचीन नहीं है । यों तो मिथ्या ज्ञानोंमें भी प्रमाणपना घुस बैठेगा। यहां स्वतः प्रामाण्यके ऊपर विस्तृत विचार किया है। अनम्यास दशा में प्रामाण्यको परतः जाननेकी व्यवस्था की है। प्रमाणता और अप्रमाणता दोनोंको परतः ही माननेवाले नैयायिकोंके यहां आकुलता मच जायगी । प्रवृत्तिकी सामर्थ्यसे प्रमाणको अर्थवान् माननेमें अनवस्था होती है। यहां प्रवृत्तिकी सामर्थ्यमें विकल्प उठाकर न्यायमतका खण्डन किया है। संशयज्ञानसे प्रवृत्ति नहीं हो सकती है। प्रेक्षावान् पुरुषोंकी प्रवृत्ति प्रमाणोंसे होती है। विशेष विशेष ज्ञानावरणके विघट जानेसे किसीकी प्रेक्षापूर्वक क्रिया करना और अन्यके अप्रेक्षापूर्वक क्रिया करना बन रहा है । अभ्यास, प्रकरण, बुद्धिपाटव, ये विशेष कार्यकारी