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तत्त्वार्थ लोकवार्तिक
इस सूत्रका सारांश . इस सूत्रके प्रकरणोंकी सूचनिका इस प्रकार है। प्रथम ही पांचों ज्ञानोंको दो प्रमाणरूप खीकार किया है । एक, तीन, आदि अभीष्ट प्रमाणोंमें सभी प्रमाणोंका अन्तर्भाव नहीं हो सकता है। प्रमाणके स्वरूप और संख्यामें पडे हुये विवादोंका मूलसूत्रसे निराकरण हो जाता है। जड इन्द्रियोंको मुख्य प्रमाणता नहीं है । हो, चेतन मावेंद्रियां स्वार्थकी परिच्छित्तिमें साधकतम हैं । कोई भी जडपदार्थ प्रमितिका करण नहीं है । वैशेषिकोंसे माना गया सन्निकर्ष मी प्रमाण नहीं है। सर्वथा भिन्न पडे हुये आत्मा और ज्ञान भी प्रमाण नहीं हो सकते हैं। अन्यथा झानका सम्बन्ध ( स्वसमवायि संयोग ) होनेसे शरीर भी प्रमाता बन बैठेगा । तादात्म्यपरिणामके अतिरिक्त समवाय पदार्थ कुछ नहीं है । अतः प्रमिति, प्रमाण, प्रमाताका सर्वथा भेद नहीं है। हां, प्रमिति और प्रमाणसे प्रमाताका सर्वथा अभेद भी नहीं है। किन्तु कथंचित् भेद, अभेद, है, जैसे कि चित्रज्ञान है। यहां स्याद्वादका रहस्य समझने योग्य है। जिन वैशेषिकोंने संयोग आदिक छह संनिकर्ष माने हैं, उनमें अनेक दोष आते हैं । लौकिक संनिकर्ष और अलौकिक संनिकोंको प्रमितिका साधकपना नहीं बनता है । कर्मोके पटलका विघटन हो जानेसे आत्मा ही सम्पूर्ण प्रमितियोंको बना लेता है। योग्यतारूप संनिकर्षको भले ही प्रमाण कह दो। यहां अन्य भी आनुषंगिक विचार किये गये हैं । बौद्धोंकी मानी हुयी तदाकारता भी प्रमाण नहीं है । ताप्य, तदुत्पत्ति और सदध्यवसाय, ये तीनों ज्ञानके विषयका नियम नहीं करा सकते हैं। संनिकर्ष और तदाकारता आदिमें अन्वयव्यभिचार और व्यतिरेकव्यभिचार होते हैं। स्वसंवेदन प्रत्यक्षज्ञानको आकार पडे विना भी प्रमाण माना गया है। सम्वेदनाद्वैत माननेसे भी कार्य नहीं चलेगा और भी यहां चोखा विचार है। बात यह है कि उपचारसे चाहे कुछ भी कह लो, वस्तुतः अज्ञानकी निवृत्ति करनेवाला सम्यग्ज्ञान ही प्रमाण है। सम्यक् शब्दका अधिकार चळे आनेसे संशय आदि मिथ्याज्ञान प्रमाण नहीं हैं। जितने अंशमें जिस प्रकार ज्ञानका अविसम्बाद है, उतने अंशमें उस बानको प्रमाणता है। जैसे कि सम्यग्दृष्टिके जितने अंशमें राग है, उतने अंशसे बन्ध है और शेष अंशोंसे संवर है। पांच छानोंमें से मति, श्रुतको एक देशसे प्रमाणपना है । अवधि मनःपर्ययको पूर्णरूपसे प्रमाणता है। केवल ज्ञानको भी सम्पूर्ण पदार्थोंमें पूर्णरूपसे प्रमाणता है । शहाजाहपुर, बरेली, वलिया, सहारनपुरकी बनी हुई खांडोंमें मीठेपनका अन्तर है । मिश्री, खांड, गुडमें भी मीठेपनका तारतम्य है । इसका यही अभिप्राय है कि उन पुद्गल पिण्डोंमें अनेक छोटे छोटे पुद्गलस्कन्ध मिठाईसे रहित हुए मिले हुए हैं। मालगाडीसे सवारीगाडी और उससे भी अधिक डांक गाडी तेज चलती है। यहां यह ध्वनित हो जाता है कि डांकगाडीसे सवारीगाडी पटरी या आकाश प्रदेशोंपर अधिक ठहरती है और सवारी गाडीसे मालगाडी रेल पटरियोंपर देरतक खडी रहती है । अन्य एक घंटेमें दो सौ मीक