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तत्वार्थ लोकवार्तिके
नहीं हैं । अभ्यास दशामें स्वतः और अनभ्यास दशामें परतः प्रामाण्य जान लिया जाता है । यही बात अप्रामाण्यमें समझो । सम्पूर्ण तत्त्व स्याद्वादसे बिंध रहे हैं । सम्पूर्ण अंगोंमें प्रमाणताको धारण करनेवाला भी केवलज्ञान परकीय चतुष्टयसे प्रमाण नहीं है। शून्य वादियोंके यहां इष्टविधान और अनिष्टनिषेध यह प्रक्रिया प्रमाण माननेपर ही सिद्ध होती है । अन्यथा किसी बातकी भी व्यवस्था नहीं है । विशेष क्षयोपशमके अनुसार अभ्यास और अनभ्यास किसी किसी प्राणीके अनेक विषयोंमें हो जाते हैं। प्रत्यक्ष और परोक्ष दो प्रमाण हैं । चार्वाकोंका एक ही प्रत्यक्ष प्रमाण मुख्य है, यह मन्तव्य अच्छा नहीं है । गुरु, पिता, आदिके प्रत्यक्षोंका प्रमाणपना प्रत्यक्षसे तुमको नहीं ज्ञात हो सकता है । अतः अनुमान मानना पडेगा। बौद्धोंके द्वारा प्रत्यक्ष और अनुमान दो प्रमाण मानना भी ठीक नहीं है । व्याप्तिको जाननेके लिये अन्य प्रमाणोंकी आवश्यकता होगी योगी । प्रत्यक्षसे तुमको व्याप्तिका ज्ञान नहीं हो सकता है । अनुमानसे व्याप्तिका ज्ञान करनेमें अनवस्था, अन्योन्याश्रय, दोष होते हैं । तर्कके समान स्मृति, संत्रा, आदि भी प्रमाण मानने पडेंगे । स्मृति आदिक भेदोंको धारनेवाली मति और अनुमान तथा श्रुत ये तीन प्रमाण हो गये, फिर दोका नियम कहां रहा ? विषयभेदसे प्रमाणभेद नहीं हैं। किन्तु सामग्रीभेदसे प्रमाणभेद मानना चाहिये । शब्द, लिंग और अक्ष, सामग्रीसे उत्पन्न हुये तीन प्रमाण हुये जाते हैं। सर्वज्ञका ज्ञान इन्द्रियजन्य नहीं है । समाधिसे उत्पन्न हुआ उपकार कुछ उपयोगी नहीं है । कर्त्तासे अभिन्न भी करण हो जाते हैं। जैसे कि वृक्षके गिरनेमें उसकी शाखाओंका बोझ करण हो जाता है। प्रत्यक्षका लक्षण विशदपना ठीक है । विशद न होनेसे और सम्वादी होनेसे स्मरण, प्रत्यभिज्ञान, और तर्क न्यारे परोक्ष प्रमाण हैं। स्मरणको जैसे अनुमानमें गर्मित करनेसे अनवस्था आती है, उसी प्रकार उपमान, अर्थापत्तिमें अन्तर्भाव करनेपर भी अनवस्था दोष होगा । क्योंकि उपमान और अर्थापत्तिके उत्पादक कारणोंमें स्मृति आदिक पडे हुये हैं । गौके सदृश पदार्थ गवयपदका वाच्य होता है । उपमितिमें ऐसे अतिदेश वाक्य (वृद्धवाक्य ) के अर्थका स्मरण करना व्यापार माना गया है। तत्प्रकारक शादबोध तदवच्छेद करके शक्तिका ग्रहण करना कारण माना गया है । स्मृति आदिकोंको अभाव प्रमाण मानने. पर विधि अंशमें प्रवर्तकपना विरुद्ध हो जायगा । इस प्रकार चार, पांच, छह प्रमाण माननेवालोंके यहां भी प्रमाणोंकी संख्या ठीक नहीं बैठती है। क्योंकि आवश्यक प्रमाण स्मृति आदिक उनमें प्रविष्ट नहीं हो पाते हैं । और जैनसिद्धान्तमें माने गये दो प्रमाणोंमें सभी प्रमितिकरणतावच्छेदकावच्छिन्नगर्मित हो जाते हैं । अवग्रह आदिक और अवधि आदिक सर्व सम्यग्ज्ञान इन्हींके भेद हैं । इस प्रकार वे मति आदिक पांचों ज्ञान प्रत्यक्ष और परोक्षरूप दो प्रमाण हैं।
तां प्रत्यक्षपरोक्षे नः स्पष्टास्पष्टप्रकाशिनी । रोदसी पुष्पवन्ताभे व्याप्याज्ञाननिवृत्तये ॥ ( व्याख्यात स्पष्टास्पष्टप्रतिपादक प्रत्यक्षपरोक्ष प्रमाण अज्ञाननिवृत्तिके लिए भूमंडलमें जगवंत रहे । )