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________________ संस्था चिन्तामणिः जधर्मानुग्रहीतेन मनसा सर्वार्थज्ञानसिद्धेरदोष इति चेत्, कुतः पुनस्तेन मनसोऽनुग्रहः ? सत्सर्वार्थसन्निकर्षकरणमिति चेत् तद्वदसौ योगजो धर्मः स्वयं सकृत्सर्वार्थज्ञानं परिस्फुटं किं न कुर्वीत परंपरापरिहारश्चैवं स्यानान्यथा योगजधर्मात् मनसोनुग्रहस्ततोऽशेषार्थज्ञानमिति परंपराया निष्प्रयोजनत्वात् । योगी केवलज्ञानियोंका ज्ञान [ पक्ष ] इन्द्रियोंसे जन्य नहीं है [ साध्य ] । अन्यथा सम्पूर्ण अर्थोके ग्राहकपनेके अभावका प्रसंग होगा। जैसे कि हम सारिखे छद्मस्थोंका इन्द्रियजन्य ज्ञान सम्पूर्ण अर्थोको नहीं जानपाता है । इन्द्रियों के साथ सम्पूर्ण अर्थीका अव्यवहित रूपसे अथवा परम्परा करके भी युगपत् सन्निकर्ष नहीं हो रहा है और इन्द्रियोंसे नहीं संनिकृष्ट हुये अर्थोंमें वह इन्द्रियजन्य प्रत्यक्षज्ञान होता नहीं सम्भवता है । यदि नैयायिक या सांख्य यों कहें कि सयोगकेवलीके चित्त की वृत्तियोंको रोककर एक अर्थमें शुभध्यानरूप योगसे उत्पन्न हुए धर्मकरके अनुग्रहको प्राप्त हुये मन इन्द्रियसे सम्पूर्ण अर्थोका ज्ञान होना सिद्ध हो जायगा । अतः कोई दोष नहीं है । ऐसा कहने पर तो हम जैन पूछते हैं कि बंताओ, उस समाधिजन्य धर्मकरके मनका अनुग्रह फिर किस ढंगसे हुआ है ? इसपर तुम यों कहो कि एक ही बारमें संपूर्ण अर्थोके साथ मनका संनिकर्ष कर देना ही धर्मका मनके रूपर उपकार है, तब तो उसीके समान यानी सम्पूर्ण अर्थोके साथ मनका संनिकर्ष कर देने के समान. वह योगज धर्म युगपत् ( एकदम.) स्वयं अतीव विशद सम्पूर्ण अर्थोके ज्ञान ही को सीधा क्यों नहीं कर देवेगा ? इस प्रकार करनेसे बीचमें परंपरा लेनेका परिहार भी हो जाता है । अन्यथा यानी दूसरे प्रकारोंसे परम्पराका निवारण नहीं हो पाता है। योगज धर्मसे मनके ऊपर अनुग्रह पहिले किया जाय और पीछे उससे सम्पूर्ण अर्थीका ज्ञान किया जाय । इस परम्परा माननेका कुछ प्रयोजन नहीं दीखता है । अतः मध्यमें संनिकर्षको माने विना ही एकत्व वितर्क अत्रीचार नामके योगसे उत्पन्न हुए केवल ज्ञानद्वारा साक्षात् सम्पूर्ण अर्थोका ग्रहण हो जाना अभीष्ट कर लेना चाहिये । यही जैनसिद्धान्त है । करणाद्विना ज्ञानमित्यदृष्टकल्पनत्यागः प्रयोजनमिति चेत् । नव्वेवं सकृत्सर्वार्थसनिकर्षों मनस इत्यदृष्टकल्पनं तदवस्थानं, सकृत्सर्वार्थज्ञानान्यथानुपपत्तेस्तस्य सिद्धर्नादृष्टकलनेति चेत् न, अन्यथापि तत्सिद्धेः आत्मार्थसन्निकर्षपात्रादेव तदुपपत्तेः । तथाहि । योगिज्ञानं करणकपातिवति साक्षात्सर्वार्थज्ञानत्वात् यनैवं तन्त्र तथा यथास्मदादिज्ञानमिति युक्तमुत्पश्यामः। ____ यदि सांख्य या वैशेषिक यों कहें कि प्रत्यक्षज्ञानका करण संनिकर्ष है। करणके विना ज्ञान हो जाय ऐसा देखा नहीं गया है । अतः केवलज्ञानीके प्रत्यक्ष करनेमें अशेष, अर्थोके साथ संनिकर्ष माननेका यह प्रयोजन है कि करण विना ज्ञान हो गया, ऐसी अदृष्ट कल्पनाको त्याग दिया जाय । आचार्य कहते हैं कि ऐसा कहनेपर तो आपके ऊपर प्रश्न होता है कि इस प्रकार
SR No.090497
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1953
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size21 MB
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