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तत्त्वार्थश्लोकवार्तिके
विशेषको जाननेवाला वह अनुमान पुनः सामान्यको ही विषय करेगा और फिर सामान्यके द्वारा विशेषकी सामान्यपने करके ही अनुमिति होगी ।क्योंकि " सामान्येन तु व्याप्तिः " सामान्यरूपसे साध्यके साथ हेतुकी व्याप्ति होती है । व्याप्तिके अनुसार वैसा अनुमान अपने साध्यका सामान्यरूपसे ज्ञान कर पाता है । इस प्रकार धारा चलेगी। बहुत दूर भी जाकर सामान्य और विशेष दोनोंको विषय करनेवाला अनुमान स्वीकार करना पडेगा । उस अनुमानसे प्रवृत्ति होना माननेपर उस सामान्य विशेष आत्मक वस्तुकी ही प्राप्ति होना प्रसिद्ध हो जाता है।
सामग्रीभेदाद्भिन्नमनुमानमध्यक्षादिति चेत् तत एव श्रुतं ताभ्यां भिन्नमस्तु विशेषाभावात् ।
विषय भेदसे नहीं, किन्तु सामग्रीके भेदसे यदि अनुमानको प्रत्यक्षसे भिन्न मानोगे तब तो तिस ही कारण यानी न्यारी न्यारी उत्पादक सामग्री होनेसे ही श्रुतज्ञान भी उन प्रत्यक्ष और अनुमानोंसे भिन्न हो जाओ। भिन्न भिन्न सामग्री होनेका कोई अन्तर नहीं है। यहांतक तीन प्रमाणोंकी सिद्धि की जा चुकी है।
शब्दलिंगाक्षसामग्रीभेदायेषां प्रमात्रयं । तेषामशब्दलिंगाक्षजन्मज्ञानं प्रमांतरम् ॥ १७५॥ योगिप्रत्यक्षमप्यक्षसामग्रीजनितं न हि। सर्वार्थागोचरत्वस्य प्रसंगादस्मदादिवत् ॥ १७६ ॥
शब्द, संकेतग्रहण, आदि सामग्री आगमज्ञानकी है, और हेतु, व्याप्तिग्रहण, पक्षता ये अनुमानकी सामग्री है । तथा इन्द्रिय, योग्य देश, विशद क्षयोपशम ये प्रत्यक्षकी सामग्री हैं । इस प्रकार सामग्रियों के भेदसे जिन वादियोंके यहां प्रत्यक्ष, अनुमान, आगम ये तीन प्रमाण माने गये हैं, उन कापिलोंके यहां जो ज्ञान शब्द, लिंग और अक्षसे जन्य नहीं है, वह चौथा न्यारा प्रमाण मानना पडेगा। देखिये। योगियों का सम्पूर्ण पदार्थोको युगपत् जाननेवाला प्रत्यक्ष तो इन्द्रिय सामग्रीसे उत्पन्न हुआ नहीं है । योगीके प्रत्यक्षको भी यदि इन्द्रियोंसे उत्पन्न हुआ माना जायगा तो अस्मदादिकोंके अल्पज्ञान समान सर्वज्ञके प्रत्यक्षको भी सम्पूर्ण अर्थोको विषय नहीं करनेपनका प्रसंग होगा। इन्द्रियां तो सम्पूर्ण भूत, भविष्यत् , देशांतरवर्ती, सूक्ष्म, आदि. अर्थोंको नहीं जता सकती है। कई वादियोंने कहा है कि " सम्बद्धं वर्तमानं च गृह्यते चक्षुरादिभिः " सम्बधित और वर्तमान कालके अर्थको इन्द्रियां जान पाती हैं। : न हि योगिज्ञानमिद्रियजं सर्वार्थवाहित्वाभावप्रसंगादस्मदादिवत् । न हींद्रियैः साक्षात्परंपरयां वा सर्वेः सकृत् संनिकृष्यते न चासंनिकृष्टेषु तजानं संभवति । योम