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तत्त्वार्यचिन्तामणिः
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प्रकार प्रमेय पदार्थको स्वतंत्रपना नहीं जाना जा रहा है। अर्थात् - प्रमेयकी सिद्धि प्रमाणके अधीन है । इस कारण प्रमेयकी सिद्धिको करानेके लिये प्रमाणका ढूंढना व्यर्थ नहीं है। हां, कहीं अपरिचित स्थलपर अभ्यस्त नहीं किये गये विषयमें प्रमाणज्ञानकी प्रमाणता दूसरे ज्ञापकोंसे भी जानी जायगी तो भी अनवस्था दोषका प्रसंग नहीं आवेगा। क्योंकि उस ही अभ्यास दशावाले दूसरे प्रमाणसे अनभ्यस्त दशाके प्रमाणमें प्रमाणपनकी व्यवस्था हो जाती है । अतः सम्पूर्ण प्रमाण, प्रमेय, आदि पदार्थोक आद्य चिकित्सक प्रमाणतस्त्र अवश्य मानना चाहिये ।
स्वरूपस्य स्वतो गतिरिति संविदद्वैतं ब्रह्म वा स्वतः सिद्धमुपयन्नभ्यस्तविषये सर्व प्रमाणं तथाभ्युपगंतुमर्हति । नो चेदनवधेयवचनो न प्रेक्षापूर्ववादी ।
ज्ञानाद्वैतवादी या ब्रह्माद्वैतवादी विद्वान् सम्पूर्ण पदार्थों के स्वरूपका ज्ञान होना स्वतः ही मानते हैं । ज्ञान और आत्माका स्वयं अपने आपसे ज्ञान होना प्रसिद्ध ही है । और अद्वैतवादी सर्व तत्वोंको चैतन्य आत्मक स्त्रीकार करते हैं । तब उनके मतानुसार सम्पूर्ण पदार्थोंके स्वरूपका स्वतः ही ज्ञान होना ठीक पडजाता है । अस्तु. कुछ भी हो, जब कि अद्वैतवादी पण्डित शुद्ध सम्वेदन या ब्रह्मतत्त्वको स्वतः ही सिद्ध होना स्वीकार कर रहा है, तो अभ्यस्तविषयमें सम्पूर्ण प्रमाणोंको तिस प्रकार स्वतः सिद्ध स्वीकार करनेके लिये भी वह अवश्य योग्य हो जाता है । यदि वह ऐसा न मानेगा तो विश्वास नहीं करने योग्य कथन करनेवाला होता हुआ विचारपूर्वक कहनेवाला नहीं कहा जा सकता है । अर्थात् न्याय से प्राप्त हुये सिद्धान्तको टालकर एक पक्ष ( इकतरफा ) की बातके आग्रह करनेवाला वचन विश्वास करलेने योग्य नहीं है । वह विचारशाली भी नहीं अतः अभ्यासदशामें प्रमाणकी स्वतः ही सिद्धि होना मान लेना चाहिये ।
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माना जाता है ।
न च यथा प्रमाणं स्वतः सिद्धं तथा प्रमेयमपि तस्य तद्वत्स्वातंत्र्याप्रतीतेः तथा प्रतीतौ वा प्रमेयस्य प्रमाणत्वापत्तेः, स्वार्थप्रमितौ साधकतमस्य स्वतंत्रस्य प्रमाणत्वात्मकत्वात् । ततो न प्रमाणान्वेषणमफलं, तेन विना स्वयं प्रमेयस्याव्यवस्थानात् । यदा पुनरन भ्यस्तेर्थे परतः प्रमाणानां प्रामाण्यं तदापि नानवस्था परस्पराश्रयो वा स्वतः सिद्धप्रामाण्यात् कुतश्चित्कचित्प्रमाणादवस्थोपपत्तेः ।
जिस प्रकार सूर्य या दीपकके स्वप्रकाशकपनेके समान प्रमाणतत्त्व स्वतः सिद्ध है, उस प्रकार घट, पट, आदि प्रमेय भी अपने आपसे सिद्ध नहीं होते हैं। क्योंकि उन प्रमेयोंको उस प्रमाणके समान सिद्धि होनेमें स्वतंत्रता नहीं प्रतीत हो रही है। यदि प्रमेयकी भी तिस प्रकार स्वतंत्रता स्वयं प्रतीति होना माना जायगा तो प्रमेयको प्रमाणपनका प्रसंग होगा । प्रमाणका अद्वैत छाजायगा। क्योंकि स्व ( अपनी ) और अर्थकी प्रमिति करनेमें प्रकृष्ट उपकारक स्वतंत्र पदार्थको प्रमाणपना स्वरूप व्यवस्थित है । तिस कारण प्रमाणका ढूंढना निष्फल नहीं है। कारण कि उस
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