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तत्त्वार्थलोकवातिक
स्वतंत्र प्रमाणके विना प्रमेयतस्वकी स्वयं व्यवस्था नहीं हो पाती है। तथा जब फिर अनभ्यस्त विषयमें हुये प्रमाणोंकी प्रमाणता अन्य ज्ञापक कारणोंसे मानी जायगी तो भी अनवस्था अथवा अन्योन्याश्रय दोष नहीं आते हैं । अर्थात्-दूसरे, तीसरे, चौथे आदि ज्ञापकोंकी आकांक्षा बढनेसे अनवस्था तथा पहिले प्रमाणको प्रमाणता दूसरे प्रमाणसे और दूसरेकी प्रमाणता पहिले प्रमाणसे जाननेमें अन्योन्याश्रय दोष होनेकी सम्भावना नहीं है। क्योंकि किसी भी अनभ्यास दशाके प्रमाणमें अभ्यास दशाके खतः सिद्ध प्रमाणतावाले किसी भी स्वतंत्र प्रमाणसे दूसरी तीसरी कोटीपर अवस्थिति होना बन जाता है।
ननु च कचित्कस्यचिदभ्यासे सर्वत्र सर्वस्याभ्यासोस्तु विशेषाभावादनभ्यास एव प्रतिपाणि तद्वैचित्र्यकारणाभावात् । तथा च कुतोभ्यासानभ्यासयोः स्वतः परतो वा प्रामाण्यव्यवस्था भवेदिति चेत् । नैवं, तद्वैचित्र्यसिद्धः।।
बौद्ध शंका करते हैं कि कहीं भी विशेष अभ्यस्तस्थलपर किसी व्यक्तिका यदि अभ्यास माना जावेगा, तो सभी स्थलोंपर सब जीवोंका अभ्यास हो जाओ । कोई विशेषता नहीं दीखती है तथा यदि किसी जीवका किसी अपरिचित स्थलपर अनभ्यास माना जावेगा तो सभी जीवोंका सभी स्थानोंपर अनभ्यास ही रहो । प्रत्येक प्रत्येक प्राणीमें उस अभ्यास या अनभ्यासकी विचित्रताका कोई कारण नहीं हैं । तिस प्रकार होनेपर अभ्यासदशामें स्वतः प्रमाणपनेकी व्यवस्था और अनभ्यास दशामें दूसरोंसे प्रमाणपनेकी व्यवस्था भला कैसे होगी ? ग्रन्थकार कहते हैं कि इस प्रकार तो शंका नहीं करना । क्योंकि संसारी जीवोंके उस अभ्यास और अनभ्यासकी विचित्रताके कारण सिद्धि है । सो सुनिये
दृष्टादृष्टनिमित्तानां वैचित्र्यादिह देहिनाम् ।।
जायते कचिदभ्यासोऽनभ्यासो वा कथंचन ॥ १४४॥ . इस संसारमें कुछ देखे हुये कारण और कतिपय नहीं देख सकने योग्य परोक्ष निमित्त कारणोंकी विचित्रतासे प्राणियोंके किसी परिचित विषयमें अभ्यास और किसी अपरिचित विषयमें अनभ्यास कैसे न कैसे हो ही जाता है । उर्द या मूंगका रंधना और मिट्टीसे घडा बनना जैसे अंतरंग, बहिरंग कारणोंसे होता है, वैसे ही अभ्यास, अनभ्यास मी कहीं कहीं दोनों कारणोंसे हो जाते हैं। ___दृष्टानि निमित्तान्यभ्यासस्य कचित्पौनःपुन्येनानुभवादीनि तज्ञानावरणवीर्यातरायक्षयोपशमादीन्यदृष्टानि विचित्राण्यभ्यास एव स्वहेतुवैचित्र्यात् जायते, अनभ्यासस्य च सकृदनुभवादीन्यनभ्यासज्ञानावरणक्षयोपशमादीनि च । तद्वैचिच्याद्वैचित्र्येऽभ्यासोऽनभ्यासश्च जायते । ततः युक्ता स्वता परवन्ध प्रामाण्यव्यवस्था।