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तत्वार्थ लोकवार्तिके
रहा मान लिया जाता है, जो कि प्रसिद्ध पदार्थ प्रत्यक्ष आदि प्रमाणोंको साधनेवाला है । इसपर हम बौद्धों का कहना है कि उस ही प्रकार प्रमाणका साधन भी क्यों न कर लिया जाय ? अर्थात्दूसरों के अनुसार चलने से प्रमाण भी साधलिया जाय । प्रथम दूसरोंके कहनेसे पदार्थ प्रसिद्ध किया जाय और पुनः उससे प्रमाणकी सिद्धि मानी जाय । इस परम्पराका परिश्रम उठानेसे क्या लाभ हुआ ? तात्त्विकरूपसे प्रमाणको माननेकी आवश्यकता नहीं है ।
पराभ्युपगमः केन सिध्यतीत्यपि च द्वयोः ।
समः पर्यनुयोगः स्यात्समाधानं च नाधिकम् ॥ १३९ ॥ तत्प्रमाणप्रमेयादिव्यवहारः प्रवर्तते ।
सर्वस्याप्यविचारेण स्वप्नादिवदतीतरे ॥ १४० ॥
बौद्ध ही कह रहे हैं कि वह दूसरे वादियोंका स्वीकार करना किस करके सिद्ध हो रहा है ? इस प्रकारका प्रश्न उठाना दोनोंको समान है और समाधान करना भी दोनों का एकसा है। कोई अधिक नहीं हैं । अर्थात् — प्रमाणको माननेवाले और न माननेवाले दोनोंके यहां अन्य वादियोंके माने गये पदार्थों को स्वीकार करनेमें शंकासमाधान करना एकसा है। किसीके यहां कोई अधिकता नहीं है । तिस कारण प्रमाण, प्रमेय, प्रमाता, आदिक व्यवहार सभीके यहां विना विचार करके प्रवर्त रहे हैं। जैसे कि स्वप्न, मूर्च्छित, ग्रामीण झूठी किम्वदन्तियां आदिके व्यवहार भित्तिके विना यों ही झूठ मूठ प्रचलित हो रहे हैं । इस प्रकार यहांतक अन्य बौद्ध या शून्यवादी कह रहे हैं।
तेषां संवित्तिमात्रं स्यादन्यद्वा तत्त्वमंजसा ।
सिद्धं स्वतो यथा तद्वत्प्रमाणमपरे विदुः ।। १४१ ।। यथा स्वातंत्र्यमभ्यस्तविषयेऽस्य प्रतीयते । प्रमेयस्य तथा नेति न प्रमान्वेषणं वृथा ॥ १४२ ॥ परतोपि प्रमाणत्वेऽनभ्यस्तविषये क्वचित् । नानवस्थानुषज्येत तत एव व्यवस्थितेः ॥ १४३ ॥
उन बौद्धोंके यहां केवल शुद्ध सम्बित्ति अथवा अन्य कोई शून्य पदार्थ या तत्त्वोपप्लव तत्त्वका
उसीके
समान दूसरे जैन, मीमांसक,
जिस प्रकार शीघ्र अपने आप सिद्ध होना माना गया है, नैयायिक आदि वादी विद्वान् प्रमाणतत्त्वको स्वतः सिद्ध अभ्यास किये गये परिचित विषयमें इस प्रमाणको स्वतंत्ररूपसे प्रमाणपना प्रतीत हो रहा है, तिस
होना
मान रहे हैं । तथा जिस प्रकार