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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
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विनम् ।
है, जिसका कि शशशृङ्गके समान निरूपण नहीं किया जा सके। यदि शून्यवादी अनुमान बनाकर यों कहें कि प्रमाण ( पक्ष ) नहीं है ( साध्य ) । विचार किया जा चुकनेपर प्रमाणतत्त्वका योग नहीं बन पाता है (हेतु ) । इस प्रकार स्वयं अनुमान प्रमाण स्वीकार नहीं करनारूप इष्ट अर्थको दूसरोंके प्रति प्रमाणसे साधन करा रहा और प्रमाण प्रमेय आदि अनिष्ट तत्त्वोंको प्रमाणोंसे ही निराकरण कर रहा शून्यवादी कैसे स्वस्थ कहा जा सकता है ? पूर्वापरविरुद्ध बातोंको कहनेवाला उन्मत्त है । तिस कारण विना कहे हुये ही अर्थापत्तिसे प्रमाणकी सिद्धि होना आ गया । विशेष श्रम करना नहीं पड़ा।
ननु प्रमाणससिद्धिः प्रमाणांतरतो यदि । तदानवस्थितिनों चेत् प्रमाणान्वेषणं वृथा ॥ १३५॥ आद्यप्रमाणतः स्याचेलमाणांतरसाधनम् । ततश्चाद्यप्रमाणस्य सिद्धेरन्योन्यसंश्रयः ॥ १३६ ॥
वैभाषिक बौद्ध कहते हैं कि प्रमाणकी अच्छे ढंगकी सिद्धि यदि दूसरे प्रमाणोंसे होना मानोगे तब तो अनवस्था हो जायगी। क्योंकि उन दूसरे आदि प्रमाणोंकी सिद्धि अन्य तीसरे, चोथे, आदि प्रमाणोंसे होते होते कहीं विश्राम प्राप्त नहीं होगा। तथा यदि दूसरे प्रमाणोंसे प्रकृत प्रमाणकी अच्छी सिद्धि होना नहीं मानोगे यानी अन्य प्रमाणोंके विना भी इस प्रमाणकी समीचीन रूपसे सिद्धि हो जायगी तो प्रमेयकी सिद्धि भी किसी भी प्रमाणको माने विना यों ही हो जायेंगी । ऐसी दशामें प्रमाणोंका ढूंढना व्यर्थ है । तथा आदिमें होनेवाले प्रमाणसे यदि दूसरे प्रमाणकी सिद्धि होना माना जायगा, और उस दूसरे प्रमाणसे प्रथम होनेवाले प्रमाणकी सिद्धि मानी जायगी, ऐसा करनेसे अन्योन्याश्रय दोष होता है।
प्रसिद्धनाप्रसिद्धस्य विधानमिति नोत्तरम् । प्रसिद्धस्याव्यवस्थानात् प्रमाणविरहे कचित् ॥ १३७ ॥ परानुरोधमात्रेण प्रसिद्धोर्थों यदीष्यते । प्रमाणसाधनस्तद्वत्प्रमाणं किं न साधनम् ॥ १३८ ॥
बौद्ध ही कहते हैं कि कोई यों कहें कि प्रतीतियोंसे साधलिये गये प्रसिद्ध पदार्थ करके यदि अप्रसिद्ध प्रमाण या प्रमेयकी व्यवस्था कर ली जावेगी, इस प्रकारका उत्तर भी ठीक नहीं है। क्योंकि कहीं मी निर्णीतरूपसे प्रमाणतत्त्वको माने विना प्रसिद्धतत्त्वकी व्यवस्था नहीं हो सकती है। यदि कोई यों माने कि दूसरे नैयायिक, जैन आदि वादियोंके केवल अनुरोधसे पदार्थ प्रसिद्ध हो