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________________ १२६ तत्त्वार्थ कोकवार्तिके प्रमाणमुपगम्यते विरोधाभावात् । न पुनर्यत्स्वतः तत्स्वत एव यत्परतस्तत्परत एवेति सर्वथैकांतप्रसक्तेरुभयपक्षपक्षिप्तदोषानुषंगात् । सबसे बडा केवलज्ञान भी अपने द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावके वशसे प्रमाण है । दूसरे जड या मतिज्ञानके द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावकी अधीनतासे प्रमाण नहीं है । इस प्रकार सभी सम्यग्ज्ञान कथंचित् प्रमाण हैं, और किसी अपेक्षासे प्रमाण नहीं भी हैं । रसना इन्द्रियसे उत्पन्न हुये मोदकके रासनप्रत्यक्षको जैसी प्रमाणता है, केवलज्ञानसे जाने गये मोदकरसके ज्ञानको वैसी प्रमाणता नहीं है। तथा वह केवलज्ञान ही स्वकीय आत्माको स्वतः प्रमाणरूप है। और क्षायोपशमिक ज्ञानी छनस्थोंको तो अन्य कारणोंसे प्रमाणरूप जानने योग्य है । इस कारण सभी ज्ञान कथंचित् स्वतः प्रमाणरूप हैं। और कथंचित परतः प्रमाणरूप स्वीकार किये जाते हैं। कोई विरोध नहीं आता है। फिर ऐसा नहीं है, जो स्वतः ही होय वह स्वतः ही रहे और जो परसे होय वह परसे ही होता रहे। यों सभी प्रकारसे एक ही धर्म माननेका प्रसंग आता है, जो कि प्रतीतसिद्ध नहीं है। क्यों कि ऐसा माननेपर स्वतः और परतः इन दोनों पक्षोंमें दिये गये दोषोंका प्रसंग होगा । नन्वसिद्धं प्रमाणं किं स्वरूपेण निरूप्यते। शशश्रृंगवदित्येके तदप्युन्मत्तभाषितम् ॥ १३३ ॥ स्वेष्टानिष्टार्थयोातुर्विधानप्रतिषेधयोः। सिद्धिः प्रमाणसंसिध्द्यभावेस्ति न हि कस्यचित् ॥ १३४ ॥ कोई शून्यवादी या संशयंमिथ्यादृष्टि शंका करता है कि जब प्रमाण अपने स्वरूपसे सिद्ध नहीं है, तो शशके सींग समान उसका क्यों निरूपण किया जाता है ? इस प्रकार कोई एक उद्भ्रान्त मनुष्य कह रहे हैं । आचार्य कहते हैं कि वह कहना भी उन्मत्तोंका भाषण है । क्योंकि किसी नास्तिक शून्यवादी या विभ्रान्त भी ज्ञाताको अपने इष्ट अर्थके विद्यमान करनेकी और अपने अनिष्ट अर्थके निषेध करनेकी सिद्धि होना प्रमाणकी मले प्रकार सिद्धि न होनेपर कथमपि नहीं बनता है । इष्टसाधन अनिष्टबाधन ये दोनों प्रमाणकी सिद्धि कर चुकनेपर सम्भवते हैं । अन्यथा नहीं। इष्टार्थस्य विधेरनिष्टार्थस्य वा प्रतिषेधस्य प्रमाणानां तत्त्वतोऽसंभवे कदाचिदनुपपत्तेन स्वरूपेणासिद्धं प्रमाणमनिरूपणात् शशश्रृंगवन्नास्ति प्रमाणं विचार्यमाणस्यायोगादिति स्वयमिष्टमर्थ साधयन्ननिष्टं च निराकुर्वन् प्रमाणत एव कथमनुन्मत्तः। ततः प्रमाण सिद्धिरादायाता। ___ वास्तविक रूपसे प्रमाणोंका असम्भव माननेपर इष्ट अर्थकी विधि और अनिष्ट अर्थके निषेधकी कभी भी सिद्धि नहीं हो सकती है । इस कारण प्रमाणतत्त्व भला स्वरूपसे असिद्ध नहीं
SR No.090497
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1953
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size21 MB
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