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- तत्त्वार्थचिन्तामणिः
तिस कारण हिताहित विचारनेकी बुद्धिको धारण करनेवाले पुरुषोंका सभी क्रियाओंमें प्रवृत्ति करना प्रामाण्यका निश्चयवाले प्रमाणसे ही होना युक्त है । हो, नहीं विचारकर कार्यको करनेवाले दूसरोंकी किसी किसी कार्यमें संशय, विपर्यय, आदिसे भी प्रवृत्तिका होना मान लिया गया है। भ्रान्तज्ञानोंसे अभ्रान्त ज्ञान न्यारे हैं ।
द्विविधा हि प्रवर्तितारो दृश्यते विचार्य प्रवर्तमानाः केचिदविचार्य चान्ये । तत्रैकेषां निश्चितप्रामाण्यादेव वेदनात् कचित्मवृत्तिरन्यथा प्रेक्षावत्वविरोधात् । परेषां संशयाद्विपर्ययाद्वा अन्यथाऽप्रेक्षाकारित्वव्याघातादिति युक्तं वक्तुं, लोकवृत्तानुवादस्येवं घटनात् । सोयमुद्योतकरः स्वयं लोकमवृत्तानुवादमुपयन् प्रामाण्यपरीक्षायां तद्विरुद्धमभिदधातीति किमन्यदनात्मज्ञताया।
___ कारण कि प्रवृत्ति करनेवाले जीव दो प्रकारके देखे जाते हैं। एक तो विचार कर प्रवृत्ति कर रहे हैं। दूसरे कोई प्राणी नहीं विचार कर भी प्रवृत्ति कर रहे हैं । तिन दोनोंमें एक प्रकारके पहिली श्रेणीके जीवोंके यहां प्रामाण्यका निश्चयवाले ज्ञानसे ही किसी भी कार्यमें प्रवृत्ति होना बनता है। अन्यथा यानी प्रामाण्यके निश्चय नहीं रखनेवाले ज्ञानसे प्रवृत्ति करना यदि मान लिया जायगा तो उन जीवोंके विचारशालिनी बुद्धिसे सहितपनेका विरोध होगा तथा दूसरी श्रेणीमें पडे हुये अन्य जीवोंके यहां संशयज्ञान और विपर्ययज्ञानसे भी कहीं प्रवृत्ति होना बन जाता है । अन्यथा उनके विचारकर नहीं कार्य करनेवाली बुद्धिसे सहितपनका व्याघात होगा, इस प्रकार कहनेके लिये युक्त है । लोकमें ऐसा ही वर्ताव देखा गया है कि थूक लगजानेका संशय हो जानेपर धोना या स्नान करना पाया जाता है । निश्चित कुकर्म और संदिग्ध कुकर्मका प्रायश्चित्त एकसा है । लेजमें सर्पका विपर्ययज्ञान होनेपर निवृत्ति होना, चकित होना, देखा जाता है । इस प्रकार लोकमें प्रसिद्ध हो रहे आचरणका अनुवाद करना यों घटित हो जाता है । सो यह नैयायिकोंके चिन्तामणि प्रन्थकी उद्योत नामक टीकाको करनेवाला विद्वान् स्वयं लोकमें आचरण किये जा रहेके अनुवादको स्वीकार करता हुआ फिर प्रमाणपनकी परीक्षा करते समय उससे विरुद्ध कह रहा है। इसमें अपनी आत्माको नहीं पहचाननेके अतिरिक्त और क्या कारण कहा जाय ? भावार्थ-लोकमें आचरे गये व्यवहारके अनुसार संशय और विपर्ययसे प्रवृत्ति होना नैयायिक इष्ट करते हैं। किन्तु यथार्थरूपसे प्रमाणपनकी परीक्षा करते समय उससे प्रतिकूल बोल देते हैं । इसमें उनका आत्माका ज्ञानस्वरूप नहीं मानना ही कारण है । आत्माको ज्ञानसे रहित जड कहनेवाले कुछ भी कहें । ऐसे मनमानी कहनेवालेको कौन रोक सकता है ?
ननु च लोकव्यवहारं प्रति बालपंडितयोः सदृश्यत्वादभेक्षावत्यैव सर्वस्य प्रवृत्तेः कचित्संशयात् प्रवृत्तिर्युक्तैवान्यथाऽप्रेक्षावतः प्रवृत्यभावप्रसंगादिति चेत् न, तस्य कचित्कदाचित्लेक्षावचयापि प्रवृत्यविरोधात् ।। . . .