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तत्त्वार्यश्लोकवार्तिके
ठीक नहीं है । क्यों कि अनभ्यास दशामें निर्णय होना बडा कठिन है और इस मायाचारीके बाहुल्यके युगमें झट किसीके दोष या गुणका निर्णय करना तो अतीव कष्टसाध्य है, जिससे कि इस प्रकार अभ्यास और अनभ्यास दशामें प्रमाणपन और अप्रमाणपनका एकसापन सिद्ध नहीं होवे। अर्थात् -दोनों एकसे हैं । स्वतः होनेके अथवा परतः ज्ञप्ति होनेके उनके कारण एकसे हैं। और अनभ्यास दशामें ज्ञानोंकी उत्पत्ति और स्वकार्यमें भी अन्य सामग्री और स्वग्रहणका निरपेक्षपना असिद्ध है । यानी प्रमाणके कार्य यथार्थ परिच्छेद अथवा " यह प्रमाण है ” ऐसा निर्णय होना रूप कार्यमें अन्य सामग्रीकी और स्वके ग्रहणकी ज्ञानको अपेक्षा है । प्रामाण्यकी उत्पत्तिमें ज्ञानके सामान्य कारणोंसे अतिरिक्त कारणोंकी अपेक्षा पहिले बतला दी गयी है। तिस कारण उत्पत्ति, ज्ञप्ति और स्वकार्य करने में प्रामाण्य स्वतः ही है, यह एकान्तवादियोंका कहना युक्त नहीं है । ऐसा हम ठीक युक्तिपूर्ण समझ रहे हैं ।
द्वयं परत एवेति केचित्तदपि साकुलम् । स्वभ्यस्तविषये तस्य परापेक्षानभीक्षणात् ॥ १११ ॥
नैयायिक कहते हैं कि प्रामाण्य और अप्रामाण्यकी ज्ञप्ति चाहे अभ्यास दशा हो अथवा अनभ्यास दशा हो, दूसरे कारणोंसे ही होती है । ग्रन्थकार कहते हैं कि वह कहना भी आकुलता सहित है । क्योंकि अच्छे ढंगसे अभ्यासको प्राप्त हुये विषयमें उस प्रामाण्य-अप्रामाण्यके द्वयको अन्य कारणोंकी अपेक्षा रखना नहीं देखा जाता है।
स्वभ्यस्तेपि विषये प्रमाणाप्रमाणयोस्तद्भावसिद्धौ परापेक्षायामनवस्थानापत्तेः कुतः कस्यचित्प्रवृत्तिनिवृत्ती च स्यातामिति न परत एव तदुभयमभ्युपगंतव्यं ।
भले प्रकार अभ्यासको प्राप्त किये गये भी विषयमें प्रमाण और अप्रमाणके उस प्रमाणपन और अप्रमाणपनके अधिगमकी सिद्धि करनेमें यदि अन्योंकी अपेक्षा मानी जायगी तो अनवस्था दोषका प्रसंग होता है। क्योंकि उस ज्ञापक अन्य प्रमाणके प्रामाण्यको जाननेके लिये भी अन्य ज्ञापक प्रमाणके उत्थापनकी आकांक्षा बढती जायगी । अज्ञान तो अन्योंका ज्ञापक होता नहीं है। इस कारण भला किसकी किससे प्रवृत्ति और निवृत्ति हो सकेगी ? ज्ञापक कारणोंको ढूंढते ढूंढते शक्तियां नष्ट हो जावेंगी । पार नहीं मिलेगा। अतः वह प्रमाणपन और अप्रमाणपन दोनोंकी ज्ञप्तिका परसे ही होना नहीं स्वीकार करना चाहिये ।
तत्र प्रवृत्तिसामर्थ्यात्प्रमाणत्वं प्रतीयते । प्रमाणस्यार्थवत्वं चेनानवस्थानुषंगतः ॥ ११२ ॥