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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
वस्त्र कुछ मैला समझा जाता है । मीठा चूरमा बनाने के लिए दस सेर चूनमें एक रुपये भर निमक डालना रसको व्यक्त करनेवाला समझा जाता है । निमकीन चटनी और खट्टे नीबूमें · स्वल्प बूरा डाल कर उन रसोंको उद्भूत कर लिया जाता है। किसी पुरुषकी लाल लाल आंखे भी सत्य प्रतीतिका कारण हैं । कचित् शुक्ल या नील आंखे भी मिथ्याज्ञान करा देती हैं । बात यह है कि दोष और गुग अनेक प्रकारके हैं । अनभ्यास दशामें उनका निर्णय होना कठिन है । अतः बच्चे तकके नेत्रोंमें दोष और गुण जाने जाकर स्वतः प्रमाणतावाले प्रत्यक्ष ज्ञानको करा देंगे, यह केवल सेखी मारना है । इसी प्रकार अनुमान आदि ज्ञानोंके प्रमाण, अप्रमाणपनके ज्ञापकोंका निर्णय कराना भी अनभ्यास दशामें कठिन है।
कथं वानभ्यासे दुष्टो वक्ता गुणवान् वा स्वतः शक्योवसातुं यतः शद्धस्य दोषवत्वं वा वस्त्रधीनमर्नुरुध्यते । तथा वक्तुर्गुणैः शद्वानां दोषोऽपनीयते दोषैर्वा गुण इत्येतदपि नानभ्यासे स्वतो निर्णेयं, वक्तृरहितत्वं वा गुणदोषाभावनिबंधनतया चोदनाबुद्धेः प्रमाणेतरत्वाभावनिवंधनमिति न प्रमाणेतरत्वयो समतं सिध्येत् स्वतस्तन्निबंधनं सर्वथानभ्यासे ज्ञानानामुत्पत्तौ स्वकार्ये च सामय्यंतरस्वग्रहणनिरपेक्षात्वासिद्धश्च । ततो न स्वत एवेति युक्तमुत्पश्यामः।
और यह भी तो विचारोंकी अनभ्यास दशामें दोषवान् वक्ता अथवा गुणवान् वक्ताका स्वतः ही निर्णय कैसे किया जा सकता है ! जिससे कि आप मीमांसकोंका यह अनुरोध हो सके कि शब्दका दोषयुक्तपना और गुणयुक्तपना तो वक्ताके अधीन है तथा वक्ताके गुणोंकरके शब्दके दोषोंका निवारण हो जाता है । और वक्ताके दोषोंकरके शब्दके गुण दूर कर दिये जाते हैं। इस प्रकार यह भी अनभ्यासदशामें अपने आप निर्णय करने योग्य नहीं है। अथवा वेदका वक्तारहितपना ही गुगके अभावका कारण हो जानेसे वेदवाक्यजन्य ज्ञानके प्रमाणपनके अभावका कारण हो जाय और वक्ताका रहितपना आश्रय विना दोषोंके अभावका कारणपना हो जानेसे वेद वाक्यजन्य ज्ञानके अप्रमाणपनके अभावका कारण हो जाय, यह भी निर्णय नहीं किया जा सकता है। भावार्थ-मीमांसकोंने अपनी श्लोकवार्तिकमें कहा है कि " शब्दे दोषोद्भवस्तावद्वक्त्रधीन इति स्थितं,तदभावः कचित्तावद्गुणवद्वक्तृकत्वतः॥१॥ तद्गुणैरपकृष्टानां शब्दे संक्रान्त्यसम्भवात् यद्वा वकारभावेन न स्युर्दोषा निराश्रयाः॥२॥" शब्दोंमें दोषोंकी उत्पत्ति वक्ताके अधीन है। तहां कहीं तो गुगवान् वक्ता होनेके कारण शब्दोंमें दोषोंका अभाव हो जाता है। क्योंकि वक्ताके गुगोंकरके निराकृत किये दोषोंका शब्दमें संक्रमण होना असम्भव है । अथवा अपौरुषेय वेदमें सबसे अच्छी बात यह है कि सर्वथा वक्ताके अमाव होनेसे आश्रयके विना दोष नहीं ठहर पाते हैं। अतः वेदमें स्वलः प्रमाणपना प्राप्त हो जाता है । आचार्य कहते हैं कि यह मीमांसकोंकी मीमांसा