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स्वार्थ लोकवार्तिके
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भिन्न स्वतंत्र हेतु नहीं हैं । किन्तु गुणों के अभावस्वरूप दोष हैं। ऐसी दशा में परतः प्रमाणताको उत्पन्न करानेवाले गुणोंका अन्य कारणों द्वारा निराकरण हो जानेसे स्वतः ही अप्रमाणपन आ जाता है। यहां ऐसा क्यों नहीं माना जाता है ? यदि मीमांसकोंका यह विचार होय कि निर्मलता तो चक्षुका शरीर है। हां, कामल, टेंट, मोतियाबिन्द, तमारा आदि ऊपरके भावरूप दोष हैं, तब तो हम भी कहेंगे कि हेतुका अविनाभावरहितपना उसके स्वरूपकी विकलता है । यानी जिस हेतु अविनाभाव नहीं है, उस हेतुका अभी शरीर ही नहीं बना है। बिना शरीर के दोष मला कहां रखे जांग, अतः अविनामात्र रहितानेको दोष नहीं कहना चाहिये । यदि अविनाभाव रहितप
शरीर निर्दोष है ।
को हेतुका दोष माना जाय तो मलरहितपनको चक्षुका गुण मानना भी आवश्यक हैं। तथा जिस प्रकार तत्काल उत्पन्न हुये बच्चे के भी नेत्र, कान, आदिक स्वतः ही अदुष्ट जाने जा रहे हैं । तिसी प्रकार जन्म से अन्धे पुरुष के नेत्र भी स्वतः ही दुष्ट या निर्गुण हो रहे हैं । इस प्रकार क्या शिष्टों करके नहीं देखे गये हैं ? भावार्थ मीमांसक यदि यों कह दें कि नेत्रोंका स्वकीय किन्तु पीछे कारणों से कमल आदि दोष पैदा हो जाते हैं । अतः दोष स्वतंत्र न्यारे भावरूप कारण हैं । उत्पन्न हुये बच्चों की आंखें निर्दोष होती हैं। किसी किसीके पीछे उनमें दोष आ जाता है । किन्तु इसपर हम यों कह देंगे कि बहुतसे मनुष्य जन्मसे ही अन्धे, बहिरे, तोतले, आदि उत्पन्न होते हैं । पीछेसे किसी किसीकी योग्य चिकित्सा हो जानेपर उनकी इन्द्रियों या अन्य अवयवोंमें गुण उत्पन्न हो जाते हैं । अतः अदुष्टपना या निर्गुणपना किसीका भी निज गांठका स्वरूप नहीं कहा जा सकता है ।
धूमादयो यथाग्न्यादीन् विना न स्युः स्वभावतः । धूमाभासादयस्तद्वत्तैर्विना संत्यबाधिताः ॥ १०३ ॥
मीमांसक जिस प्रकार यह कह सकते हैं कि अग्नि आदिक साध्योंके विना धूम आदिक हेतु स्वभावसे ही नहीं हो सकेंगे । अतः अविनाभावसहितपना घूमहेतुका स्वात्मलाभ है | हेतु शरीर के अतिरिक्त कोई ऊपरी गुण नहीं है। हां, अविनाभावरहितपना तो औपाधिक परभाव है । उस प्रकार हम भी आपादन कर सकते हैं कि धूमसदृश दीखनेवाले धूमाभास आदिक हेत्वाभास भी तो उन अग्निसदृश दीखनेवाले अग्न्याभास आदिके बिना नहीं हो सकते हैं। अतः धूमाभास आदिक भी अबाधित होकर स्वभावसे हो स्वतः अप्रमाणपनके व्यवस्थापक हो जाओ । यानी प्रमापन के समान अनुमान में अप्रमाणपनकी भी स्वतः व्यवस्था हो जायगी । कौन रोक सकता है ?
यथा शब्दाः स्वतस्तत्त्वप्रत्यायनपरास्तथा । शब्दाभासास्तथा मिथ्यापदार्थप्रतिपादकाः ॥ १०४ ॥