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तस्वार्थ श्लोक वार्तिके
तथा मिथ्यावभासित्वादप्रमाणत्वमादितः । अर्थयाथात्म्यहेतूत्थगुणज्ञानादपोद्यते ॥ ९८ ॥
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जिस प्रकार मीमांसकों के यहां यह माना गया है कि अर्थके बोध करानेवाले ज्ञानपने करके प्रमाणपना व्यवस्थित हो रहा है । और अर्थके अन्यथापन तथा ज्ञानके कारणोंमें दोषोंका ज्ञान उत्पन्न हो जानेसे उस प्रमाणपनेका अपवाद हो जाता है । भावार्थ - अपवादको टालकर उत्सर्ग विधियां प्रवर्त्तती हैं । सब ज्ञानोंमें स्वतः प्रमाणपना है । किन्तु जहां अर्थके विपरीतपनेका ज्ञान हो जाय ऐसे अवसरपर सीपमें हुये चांदी के ज्ञान में प्रमाणपना नहीं आसकता है । क्योंकि वहां " नेदम् रजतम् यह चांदी नहीं है, ऐसा उत्तरकालमें ज्ञान हो गया है। तथा जहां ज्ञानके कारणों में दोषों का ज्ञान उत्थित हो जाय वह भी प्रमाणपनेका अपवाद मार्ग है । जैसे कि शुक्ल शंखमें हुये पीत शंख के ज्ञानमें उत्सर्ग विधिके अनुसार प्रमाणपना नहीं आपाता है । क्योंकि मेरी आंखों में पीलिया रोग है । इस प्रकार ज्ञाताको कारणोंमें दोषका ज्ञान उत्पन्न होगया है । अतः दो अपवादस्थानों को टालकर सर्वत्र प्रमाणपना राजमार्गसे स्वयं व्यवस्थित हो रहा है । आचार्य कहते हैं कि मीमांसक लोग जिस प्रकार प्रमाणको औत्सर्गिक राजमार्ग मानकर अप्रमाणपनेको अपवाद मार्ग मानते हैं, उसी प्रकार यह भी कहा जासकता है कि सब ज्ञानों में अप्रमाणपना उत्सर्गसे राजमार्ग है । और किन्हीं किन्हीं ज्ञानोंमें प्रमाणपना तो अपवाद मार्ग है । जिस प्रकार मीमांसकोंने प्रमाणपन व्यवस्थित किया था उसी प्रकार सभी ज्ञान मिथ्याप्रकाशक होनेके कारण प्रथमसे अप्रमाणरूप ही व्यवस्थित हो रहे हैं, यह कहा जा सकता है। हां, अर्थके यथात्मकपनेसे और हेतुओं में उत्पन्न गुण ज्ञानसे उस अप्रमाणपनका अपवाद हो जाता है ! भावार्थ- सभी ज्ञान प्रथमसे स्वयं अप्रमाणरूप हैं । किन्तु घट ही में हुये घटज्ञानकी यथार्थता जान लेनेपर अप्रमाणपनेको टालकर घटज्ञानमें प्रमाणपना अन्य नवीन कारणोंसे पैदा हो जाता है। तथा गुणयुक्त निर्मल चक्षु आदिसे उत्पन्न हुयेपनका पुस्तक आदिके ज्ञानों में निर्णय हो जानेसे उस अप्रमाणपनका अपवाद हो जाता है | अतः अर्थका यथार्थपन और गुणयुक्त कारणों के ज्ञानसे होनेके कारण प्रमाणपना परत: है । नहीं तो सर्वत्र ज्ञानोंमें अप्रमाणपना औत्सर्गिक छाया हुआ है, यह आपादन हुआ । अतः विनिगमना विरहसे दोनों ही प्रमाणपन और अप्रमाणपनको परतः उत्पन्न होना मानना आवश्यक होगा । यद्यथार्थान्यथाभावाभावज्ञानं निगद्यते । अर्थयाथात्म्यविज्ञानमप्रमाणत्वबाधकम् ।। ९९ ।। तथैवास्त्वर्थयाथात्म्याभावज्ञानं स्वतः सताम् । अर्थान्यथात्वविज्ञानं प्रमाणत्वापवादकम् ॥ १०० ॥
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