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तत्वार्थचिन्तामणिः
प्रमाणके लक्षणका निर्णय कर अब प्रमाणपनेकी ज्ञप्ति, उत्पत्ति और कार्यका विचार चलाते हैं । जैनसिद्धान्त के अनुसार अभ्यास अवस्थामें प्रमाणपनेकी ज्ञप्ति स्वतः मानी गयी है। अर्थात्ज्ञानको जानते समय ही उसमें रहनेवाले प्रमाणपनको भी जान लिया जाता है । ज्ञानको प्रमाणको, और प्रामाण्यको जाननेका एक ही समय है । प्रतिभास भी एक ही है। और अनभ्यास दशामें ज्ञानका प्रमाणपना दूसरे ज्ञापक कारणोंसे जाना जाता है। ज्ञानके प्रवृत्तिरूप कार्यमें भी यही व्यवस्था है । अप्रमाणपनकी भी यही दशा है। हां, प्रमाणपन और अप्रमाणपनकी उत्पत्ति तो अन्य कारणोंसे ही होती है । मीमांसकोंके यहां प्रमाणाना स्वतः औत्सर्गिक माना गया है । और संशय आदिमें अप्रमाणपना अपवादरूप होकर अन्य कारणोंसे उत्पन्न हुआ माना है। ऐसा कोई यानी मीमांसक कह रहे हैं कि सम्पूर्ण प्रमाणोंको प्रमाणपना खतः ही प्राप्त ( ज्ञात ) हो जाता है। अर्थात्-सामान्य ज्ञानके कारणोंसे ही प्रमाणपना बन जाता है। अतिरिक्त हेतुओंकी आवश्यकता नहीं पडती है । कारण कि स्वरूपसे नहीं विद्यमान हो रही शक्ति तो अन्य कारणोंसे नहीं की जा सकती है। मिट्टीमें भी जलधारण शक्ति है । वह घट अवस्थामें व्यक्त हो जाती है । ऐसे ही ज्ञानमें प्रमाणपनेकी शक्ति विद्यमान है। ऐसा नहीं है कि पहिले सामान्यज्ञान उत्पन्न होवे और पीछे कारणोंसे उस ज्ञानमें प्रमाणपना चुपका दिया जाय। अब आचार्य कहते हैं कि उन मीमांसकोंके यहां तिस ही कारण संशय आदि अज्ञानोंका अप्रमाणपना भी स्वतः क्यों न हो जावे । क्योंकि सर्व ज्ञानोंमें सभी प्रकारसे कोई विशेषता नहीं है। क्या अप्रमाणपनेकी शक्ति पीछेकी जा सकती है ! अर्थात्-नहीं। जैसे प्रमाणपना स्वतः पूर्वसे ज्ञात हुआ विद्यमान हैं, तैसे ही अप्रमाणपना भी पहिलेसे ही विद्यमान रहना चाहिये था। फिर मीमांसक अप्रमाणपनेको परसे उत्पन्न हुआ या जाना गया क्यों कहते हैं ? बताओ। जैनसिद्धान्तके अनुसार तो दोनों प्रमाणपन और अप्रमाणपन परसे ही पैदा होते हैं। हम ऐसा नहीं मानते हैं कि ज्ञानके सामान्य कारणोंसे पहिले ज्ञान उत्पन्न होय
और पीछे निर्दोष कारणोंसे प्रमाणपना और सदोष कारणोंसे अप्रमाणपना उनमें जडदिया जाय, किन्तु निर्दोष या गुणवान् कारणोंसे पहिलेसे ही प्रमाणात्मक ज्ञान उत्पन्न होता है। और सदोष कारणोंसे पूर्वसे ही अप्रमाणज्ञान बनता है, जैसे कि चन्द्रविमान पहिले ही से काले, नीले पीले और शुक्लवर्णके रत्नोंसे बना हुआ है । कविजन उसको कलंकलांच्छन कहते हैं । और सूर्य एक वर्णके रत्नोंसे ही पहिले ही से अनादि निष्पन्न हुआ है । संतान क्रमसे आये हुए जीवोंके उच्च आचरण और नीच आचरणरूप उच्च गोत्र और नीच गोत्रमें भी यही प्रक्रिया है।
यथार्थबोधकत्वेन प्रमाणत्वं व्यवस्थितम् । अर्थान्यथात्वहेतूत्थदोषज्ञानादपोद्यते ॥ ९७ ॥