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तवाय लोकवार्तिके
यदि प्रकृतज्ञानके उत्पादक कारणोंका निर्दोषपना अन्य ज्ञानसे जाना जायगा और उस अन्य ज्ञानकी भी निर्दोष कारणोंसे हुई उत्पत्तिको तीसरे ज्ञानसे जाना जायगा तब तो तीसरे ज्ञानकी प्रमाणताको पुष्ट करनेके लिये निर्दोष कारणोंसे उसका जन्यपना जानना आवश्यक पडेगा । इस प्रकार चौथे पांच आदि ज्ञानोंकी आकांक्षा बढ जानेसे अनवस्था दोष होगा। क्योंकि हेतुओंके दोषरहितपनको जाननेवाले ज्ञानकी भी प्रमाणता तभी आवेगी, जब कि उसके भी स्त्रकीय कारणों में दोषरहितपका ज्ञान हो जाय और उस ज्ञानकी भी प्रमाणता निर्दोष कारणोंसे उत्पन्न हुये अन्य ज्ञान द्वारा हो सकेगी। यही धारा असंख्य ज्ञानोंतक चली जायगी । नहीं जाना गया ज्ञान तो अन्यका ज्ञापक होता नहीं । बहुत दूर भी जाकर अनवस्थाके निवारणार्थ यदि किसी एक ज्ञानको उस निर्दोष कारणों से जन्यपनेका ज्ञान न होते हुये भी प्रमाणपना इष्ट कर लोगे तो उस दूरवर्त्ती ज्ञानके समान ही सबसे पहिले हुये ज्ञानको भी निर्दोष कारणोंसे जन्यपनके ज्ञान विना ही वह प्रमाणता क्यों न हो जावे ? अतः प्रमाणके स्वरूप में अदुष्ट कारणोंसे आरब्धपना यह विशेषण अव्यभिचारीपनसे सफल नहीं है । अर्थात् - व्यभिचारदोषकी निवृत्ति कर देता तब तो सफल हो सकता था । अन्यथा नहीं । यहां तो निर्दोष कारणोंका जानना ही दुर्गम हो रहा है । अतः वह प्रमाणका स्वरूप करनेवाला भी नहीं माना जा सकता है ।
एवं न बाधवर्जितत्वमदुष्टकारणारब्धत्वं लोकसंमतत्वं वा प्रमाणस्य विशेषणं सफलमपूर्वार्थवत् । स्वार्थव्यवसायात्मकत्वमात्रेण सुनिश्चितासंभवद्वाधकत्वात्मना प्रमाणस्वस्य वा व्यवस्थितेरपि परीक्षकैः प्रतिपत्तव्यम् ।
इस प्रकार बाधवर्जितपना, निर्दोष कारणोंसे बनायापन, लोकमें भले प्रकार प्रतिष्ठित होरहा न ये प्रमाणके लक्षण में मीमांसकों द्वारा कहे गये विशेषण सफल नहीं हैं, जैसे कि अपूर्वार्थ विशेषण व्यर्थ है । नैयायिक लोगोंने भी कचित् लोकसम्मतपना प्रमाणका विशेषण अभीष्ट किया है । किन्तु are कैई प्रमाणविरुद्ध रीतियां भी प्रचलित हो रही हैं, अतः वे विशेषण व्यर्थ हैं । केवल स्व और अर्थका निश्चय करा देना स्वरूप करके अथवा बाधक प्रमाणोंके असम्भवका भले प्रकार निश्चित हो जाना स्वरूप करके भी प्रमाणपनेकी व्यवस्था है । यह परीक्षकों को श्रद्धान करने योग्य है ।
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स्वतः सर्वप्रमाणानां प्रामाण्यमिति केचन ।
यतः स्वतोऽसती शक्तिः कर्तुं नान्येन शक्यते ॥ ९५ ॥ तेषां स्वतोप्रमाणत्वमज्ञानानां भवेन्न किम् ।
तत एव विशेषस्याभावात्सर्वत्र सर्वथा ॥ ९६ ॥ :