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तत्वार्थचिन्तामणिः
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इत्यादि ढंगसे अनवस्था दोषका भी प्रसंग हैं । तिस कारण अनुमान आदि सम्बितियोंको गृहीतका ग्राहकपना नहीं हैं । आचार्य कहते हैं कि इस प्रकार मीमांसकोंका कहना अयुक्त है । क्योंकि स्वयं मीमांसकोंने दर्शन यानी शद्वको परार्थ माना है । " दर्शनस्य परार्थत्वात् " इत्यादि ग्रन्थ करके rah foregant सिद्धि होना स्वीकार किया है । भावार्थ - आप्तवाक्य, कोष, व्याकरण, उपमान, 1 व्यवहार, वाक्यशेष आदि हेतुओंसे शद्बका वाध्य अर्थके साथ जो संकेत ग्रहण किया है, वह संकेत ग्रहण अपने लिये उसी समय तो उपयोगी है नहीं । क्योंकि उस संकेत करते समय तो पदार्थका प्रत्यक्ष ही हो रहा है । किन्तु पश्चात् कालमें शद्वको सुनकर अर्थज्ञान कराने में उसकी सफलता हो सकती है । यह तभी हो सकता है, जब कि संकेतकालका शद्व पीछे व्यवहारकालतक स्थिर रहे । अन्यथा संकेत किसी भी शद्वमें किया था और व्यवहार कालमें दूसरा ही न्यारा शब्द सुना जारहा है । ऐसी दशामें उसी शद्वसे वाच्यअर्थकी प्रतिपत्ति नहीं हो सकेगी। दूसरी बात यह है कि वक्ता ( प्रतिपादयिता) स्वयं अपने हितार्थ तो शद्बोंको बोलता नहीं है । हां, कोई संगीत गाने वाला अपने लिये भी आनन्द प्राप्त करनेके लिये शब्द बोलता है । किन्तु वहां वाच्यअर्थकी प्रतिपत्ति उतनी इष्ट नहीं हैं । उस समय केवल शद्बका श्रावणप्रत्यक्ष अभिप्रेत हो रहा है । वस्तुतः अर्थकी प्रतिपत्ति कराने के लिये शद्वका उच्चारण करना दूसरे श्रोताओंके लिये ही उपयोगी है । वक्ता के मुख प्रदेश से लेकर श्रोताके कानोंतक वह एक ही शब्द माना जावेगा तब तो शिष्य को यह प्रतिपत्ति हो सकती है कि जो गुरुजीने कहा है, उसीको मैं सुनरहा हूं । किन्तु यदि बौद्धोंके समान एक क्षण स्थायी और वैशेषिकोंके समान केवल दो क्षणस्थायी ही शब्द माना जायगा तो गुरुके कहे हुये शद्बके सदृश उपज रहे अन्य शद्वको मैं सुनरहा हूं, ऐसी प्रतीति होनेक्का प्रसंग होगा । अतः सिद्ध है कि संकेतकाल और व्यवहारकालमें व्यापक अथवा वक्ता और श्रोताके उच्चारण और सुननेतक तथा उससे भी पहिले पीछे कालान्तरतक स्थायी शब्द नित्य है । इस प्रकार मीमांसकोंने प्रत्यभिज्ञान द्वारा शद्वके नित्यत्वको जान चुकनेपर पुनः शब्द दूसरोंके लिये होता है, इस साधन से अनुमानद्वारा शद्वकी नित्यता सिद्ध की है । इस प्रकार गृहीतग्राही अनुमानको प्रमाण भी इष्ट किया है । व्याप्तिज्ञानसे जाने जाचुके विषय में ही अनुमानज्ञान प्रवर्तते हैं । इस कारण भी सभी अनुमान कश्चित् गृहीतग्राहक हैं ।
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तत एव तत्साधनं न पुनः प्रत्यभिज्ञानादित्यसारं, नित्यः शुद्धः प्रत्यभिज्ञायमानत्वादित्यत्र हेत्वसिद्धिप्रसंगात् । प्रत्यभिज्ञायमानत्वं हि हेतुः तदा सिद्धः स्याद्यदा सर्वेषु प्रत्यभिज्ञानं प्रवर्तेत तच्च प्रवर्तमानं शद्वनित्यत्वे प्रवर्तते न शद्वरूपमात्रे प्रत्यक्षत्ववदनेकांतार्थप्रसंगात् ।
यदि मीमांसक मुकर जाकर यों कहें कि उस अनुमानसे ही शद्वकी नित्यता साधी जायगी, हम फिर प्रत्यभिज्ञानसे शद्वकी नित्यताको नहीं साधेंगे, अर्थात् — किसी शद्व में प्रत्यभिज्ञानसे और