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तत्त्वार्थश्लोकवार्तिके
चार्वाकोपि ह्येवं प्रमाणद्वयमिच्छत्येव प्रत्यक्षमेकमेव प्रमाणमगौणत्वात् प्रमाणस्येति वचनादनुमानस्य गौणप्रामाण्यानिराकरणात् ।
इस प्रकार तो चार्वाक भी दो प्रमाणोंको चाहता ही है । अपने पुरुषाओं की धारा, भीतका पराभाग, जल में प्यास के निराकरणकी शक्ति, सूर्यगमन आदिके लौकिक अनुमान सबको मानने पडते हैं । चार्वाकका कहना है कि प्रत्यक्ष ही एक प्रमाण है । क्योंकि प्रमाण अगौण होता है । प्रयक्षकी सहायता से होनेवाले अनुमानको प्रमाणपना माननेसे गौणको प्रमाणपना आता है । इस कथन से चार्वाकने अनुमानको गौणप्रमाणपनका निराकरण नहीं किया है । और उसी प्रकार बौद्ध कह रहे हैं, तब बौद्ध चार्वाक ही हो गये। दोनोंकी मुख्यरूपसे एक प्रमाण मानने में कोई विशेषता न रही ।
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तत्रापूर्वार्थविज्ञानं निश्चितं बाधवर्जितम् ।
प्रमाणमिति योप्याह सोप्येतेन निराकृतः ॥ ७२ ॥ गृहीतग्रहणाभेदादनुमानादि संविदः । प्रत्यभिज्ञाननिर्णीतनित्यशद्वादिवस्तुषु ॥ ७३ ॥
सामान्यरूपसे प्रमाणके लक्षणको वखाननेवाले इस प्रकरण में जो भी वादी इस प्रकार कह रहा है कि पहिले नहीं निश्चित किये हुये अपूर्व अर्थका बाबाओंसे रहित और निश्चयात्मक विज्ञान होना प्रमाण है, वह मीमांसक भी इस कथनसे निराकृत कर दिया गया समझ लेना चाहिये । अर्थात् — बौद्धोंके अज्ञात अर्थको प्रकाश करनेवाले प्रमाणके समान मीमांसकोंका सर्वथा अपूर्व अर्थको जाननेवाला ज्ञान प्रमाण है, यह सिद्धान्त भी अनुमानको प्रमाणपना न बन सकनेके कारण खण्डनीय है । अनुमान, प्रत्यभिज्ञान, तर्क, आदि सम्बितियोंको गृहीतका ग्रहण करनापन अभिन्न ( एकसा ) है । यह वही शब्द है । यह वही आत्मा है । इस प्रकार के प्रत्यभिज्ञान द्वारा निर्णीत किये गये शद, आत्मा आदि नित्य वस्तुओं में अनुमान आदिकी प्रवृत्ति हो रही है । अतः कथञ्चित् गृहीतग्राहीको भी प्रमाण माननेमें कोई क्षति नहीं है ।
न प्रत्यभिज्ञाननिर्णीतेषु नित्येषु शद्वात्मादिष्वर्थेष्वनुमानादिसंविदः प्रवर्तते पिष्टपे - वणवद्वैयर्थ्यादनवस्थाप्रसंगाच्च ततो न गृहीतग्रहणामित्ययुक्तं, दर्शनस्य परार्थत्वादित्यादि शद्धनित्यत्वसाधनस्याभ्युपगमात् ।
मीमांसक कहते हैं कि प्रत्यभिज्ञानसे निश्चित किये गये शद, आत्मा आदि नित्य अर्थों में अनुमान आदि सम्बितियां नहीं प्रवर्तती हैं। क्योंकि यों तो पिसे हुयेको पीसने के समान जाने येको जानना व्यर्थ पडता है । तथा जाने हुयेको जानना और फिर जाने हुयेको तिवारा जानना