________________
तत्वार्थचिन्तामणिः
९१
वस्तु के क्षणिकत्वमें सभी ओरसे व्यावृत्ति यानी अविचलपना नहीं है । अतः अनुमान में लक्षण नहीं जाता है । और परमाणुस्वरूप स्वलक्षणमें उस अविमुक्तिके न होनेसे प्रत्यक्ष भी सम्बादस्वरूप नहीं है । इसको हम पहिले कह चुके हैं । अथवा प्रत्यक्ष और अनुमानमेंसे एकमें या दोनों में अविमोक्षरूप अविसंवाद के असम्भव हो जानेसे अव्याप्ति और असम्भव दोषकरके वह प्रमाणका लक्षण अविसम्वाद दूषित हो ही जाता है । तिस कारण बौद्धों के यहां प्रमाणका अतिव्याप्ति, अव्याप्ति और असम्भव दोषोंसे घेर लिया गया अविसम्वादस्वरूप लक्षण युक्तिसहित नहीं है ।
अज्ञातार्थप्रकाशश्रेलक्षणं परमार्थतः ।
गृहीतग्रहणान्न स्यादनुमानस्य मानता ॥ ६८ ॥ प्रत्यक्षेण गृहीतेपि क्षणिकत्वादिवस्तुनि । समारोपव्यवच्छेदात्प्रामाण्यं लैंगिकस्य चेत् ॥ ६९ ॥ स्मृत्यादिवेदनस्यातः प्रमाणत्वमपीष्यताम् । मानद्वैविध्यविध्वंसनिबंधन बाधितम् ॥ ७० ॥ मुख्यं प्रामाण्यमध्यक्षेऽनुमाने व्यावहारिकम् । इति ब्रुवन्न बौद्धः स्यात् प्रमाणे लक्षणद्वयम् ॥ ७१ ॥
,,
क्षणिकत्व, स्वर्गप्रापण शक्ति
फिर भी किसी कारण वश निराकरण करदेनेसे अनुमान
" अज्ञातार्थ प्रकाशो वा स्वरूपाधिगतेः परम् अबतक नहीं जाने गये अपूर्व अर्थका प्रकाश करना यदि परमार्थ रूपसे प्रमाणका लक्षण माना जायगा तो अनुमानको प्रमाणपना नहीं प्राप्त होगा। क्योंकि वस्तुभूत जिस क्षणिकत्वको निर्विकल्पक प्रत्यक्षने जानलिया था उसी ग्रहण किये जा चुकेका अनुमान द्वारा ग्रहण हुआ है । यदि बौद्ध यों कहें कि आदि वस्तुभूत पदार्थोंका प्रत्यक्ष प्रमाण करके ग्रहण हो चुका है, उत्पन्न होगये संशय, विपर्यय, अनध्यवसाय और अज्ञानरूप समारोपके ज्ञानको प्रमाणपना है । इस प्रकार कहनेपर तो स्मृति, व्याप्तिज्ञान, आदिको भी इस ही कारण यानी समारोपका व्यवच्छेदक होनेसे बाधारहित प्रमाणपना इष्ट होजाओ, जो कि तुम बौद्धों द्वारा माने हुये प्रत्यक्ष अनुमान प्रमाणोंकी द्विविधपनके विनाशका कारण है । बौद्ध फिर यों कहें कि 1 प्रत्यक्ष प्रमाणपना मुख्यरूप से घटता है । और अनुमानमें प्रमाणपना केवल व्यवहारको साधने के लिये मान लिया गया है । इस प्रकार प्रमाण में दो लक्षणों को कह रहा बौद्ध तो बौद्ध नहीं हैं । बुद्धियों के समुदाय या बुद्धिके अपत्यका कार्य ऐसा अबुद्धिपूर्वक नहीं हो सकता है । चार्वकके समान वह बहिर्बुद्ध समझा जायगा ।