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तस्वार्थ लोकवार्तिके
तथा सति प्रमाणस्य लक्षणं नावतिष्ठते । परिहर्तुमतिव्याप्ते रशक्यत्वात्कथंचन ॥ ६५ ॥
तिस प्रकार होते संते तो बौद्धोंका माना गया प्रमाणका लक्षण ठीक व्यवस्थित नहीं होता है । क्योंकि स्वप्न आदि अवस्थाके ज्ञानोंमें लक्षणके चले जानेसे अतिव्याप्ति दोषका परिहार कैसे भी नहीं किया जासकता है । " अतः अविसंवादिज्ञानं प्रमाणं यह लक्षण ठीक नहीं है ।
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प्रमाणस्य हि लक्षणमविसंवादनं तच्च यथा सौगतैरुपगम्यते तथा युक्त्या न घटत एवातिव्याप्तेर्दुःपरिहरत्वादित्युक्तं स्वमादिज्ञानस्य प्रमाणत्वापादनात् ।
प्रमाणका वह अविसंवादीपना लक्षण जिस प्रकार बौद्धों करके स्वीकार किया जाता है, उस प्रकार युक्तियोंसे ही घटित नहीं होता है । क्योंकि स्वप्न, भ्रान्न, आदिके ज्ञानोंको प्रमाणपनेका आपादन करनेसे अतिव्याप्ति दोषका परिहार करना अतीव दुःसाध्य है । इस बातको इम साठवीं वार्त्तिक में कह चुके हैं ।
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क्षणक्षयादिबोधेऽविमुक्त्यभावाच्च दूष्यते ।
प्रत्यक्षेपि किमव्याप्त्या तदुक्तं नैव लक्षणम् ॥ ६६ ॥ क्षणिकेषु विभिन्नेषु परमाणुषु सर्वतः । संभवोप्यविमोक्षस्य न प्रत्यक्षानुमानयोः ॥ ६७ ॥
· तथा अर्थक्रिया के नहीं छूटनेपनका अभाव हो जानेसे क्षणिकत्व, संगीत आदिके ज्ञानोंमें वह लक्षण नहीं जाता है । अतः प्रत्यक्षमें भी लक्षणके न घटमेपर अव्याप्ति दोष करके वह लक्षण दूषित हो जाता है । तिस कारण वह बौद्धोंका कहा गया लक्षण ठीक नहीं है । तथा प्रत्यक्ष और अनुमान प्रमाणके विषयभूत माने गये क्षणिक और विशेषरूप से भिन्न भिन्न पडे हुये परमाणुओं अविमोक्षरूप अर्थक्रियास्थितिका सब ओरसे सम्भव नहीं है । अतः प्रत्यक्ष और अनुमान प्रमाणों में लक्षण नहीं घटने से असम्भव दोष भी है।
न हि वस्तुनः क्षणक्षये सर्वतो व्यावृत्तिर्न स परमाणुस्वभावे वा प्रत्यक्षमपि संवादलक्षणपविमोक्षाभावादित्युक्तं प्राकू । प्रत्यक्षानुमानयोर्वाऽविमोक्षस्यासंभवादव्यात्या वासंभवेन च तल्लक्षणं दूष्यत एव ततोतिव्याप्यव्याप्यसंभवदोषोपद्रुतं न युक्ति मल्लक्षणमविसंवादनम् ।