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तस्वार्थश्लोकवार्तिके
अन्य शब्दमें अनुमानसे नित्यता साध ली जावेगी। एक ही शब्दमें दो प्रमाणोंसे नित्यताको साधनेका व्यर्थ परिश्रम नहीं उठावेंगे । ग्रन्थकार कहते हैं कि इस प्रकार मीमांसकोंका कहना निःसार है। क्योंकि शब्द ( पक्ष ) नित्य है ( साध्य ) । प्रत्यभिज्ञानका विषय होनेसे ( हेतु ) । इस अनुमानमें दिये गये हेतुकी असिद्धिका प्रसंग है। यानी अनुमानके अंग हेतुके शरीरमें प्रत्यभिज्ञायमानत्व घुसा हुआ है । यदि अनुमानसे जानने योग्य शद्बनित्यत्वमें प्रत्यभिज्ञानका विषयपना माना जायगा तो प्रत्यभिज्ञायमानत्व हेतु स्वरूपासिद्ध हेत्वाभास हो जायगा। कारण कि प्रत्यभिज्ञायमानपना हेतु तब सिद्ध हो सकेगा जब कि सम्पूर्ण शब्दोंमें प्रत्यमिज्ञान प्रवर्तेगा और प्रवर्तत्ता हुआ शद्बके नित्यपने में प्रवृत्ति करे, केवल शब्दके स्वरूपमें प्रत्यक्षपनके समान यदि प्रत्यभिज्ञान विषयपन रह जायगा तब तो मीमांसकोंको अनेक धर्मवाले अर्थकी सिद्धिका प्रसंग हो जाता है। अतः प्रत्यभिज्ञानसे जान लिये गये नित्यत्वको अनुमान द्वारा जाना है, इस कारण सर्वथा अपूर्व अर्थका विज्ञान करना यह प्रमाणका निर्दोष लक्षण नहीं बन सकता है। इसमें अव्याप्ति दोष आता है।
यदि पुनः प्रत्यभिज्ञानानित्यशद्वादिसिद्धावपि कुतश्चित्तत्समारोपस्यं प्रसृतेस्तव्यवच्छेदार्थमनुमानं न पूर्वार्थमिति मतं सदा स्मृतितर्कादेरपि पूर्वार्थत्वं मा भूत् तत एव । तथा च स्वाभिमतप्रमाणसंख्याव्याघातः । कथं वा प्रत्यभिज्ञानं गृहीतग्राहि प्रमाणमिष्टं तद्धि प्रत्यक्षमेव वा ततोऽन्यदेव वा प्रमाणं स्यात् ।
यदि फिर मीमांसक यों कहें कि प्रत्यभिज्ञानसे शब्द, आत्मा, आदिके नित्यत्वकी यद्यपि सिद्धि होगयी है । किन्तु फिर भी किसी कारणसे अज्ञान, संशय आदि समारोपकी उत्पत्ति होजाती है । इस कारण उस समारोपके निवारणार्थ प्रवर्त्त हुआ अनुमान प्रमाण अपूर्वार्थ ही है। पूर्वार्थमाही नहीं है । जैनोंने भी तो " दृष्टोऽपि समारोपात्तादृक् " माना है । देख लिया गया भी पदार्थ मध्यमें समारोप हो जानेसे अपूर्वार्थके सदृश है । इस प्रकार मीमांसकोंका मन्तव्य होय तब तो स्मृति, व्याप्तिज्ञान, स्वार्थानुमान आदिको भी तिस ही कारण पूर्वगृहीत अर्थका ग्राहकपना मत ( नहीं) होवो । स्मृति आदिक भी तो अस्मरण आदि समारोपके दूर करनेके लिये अवतीर्ण हुये हैं। और तिस प्रकार माननेपर मीमांसकोंको अपनी मानी गयी पांच या छह प्रमाणोंकी संख्याका व्याघात होना प्राप्त होता है । अर्थात्-प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान, शाद, अर्धापत्ति और अभाव इन छह प्रमाणोंमें अन्तर्भाव नहीं हो सकनेके कारण स्मृति, व्याप्तिज्ञान आदिको भिन्न प्रमाण माननेपर प्रमाणोंकी अभीष्ट संख्याका व्याघात हो जाता है । तथा आप मीमांसकोंने गृहीतका ग्रहण करने वाले प्रत्यभिज्ञानको भला प्रमाण कैसे मान लिया है ? बताओ। आपके माने गये पांच या छह प्रमाणोंमेंसे वह प्रत्यभिज्ञान प्रत्यक्षप्रमाणरूप ही तो होगा अथवा उस प्रत्यक्षसे भिन्न ही कोई दूसरा प्रमाणरूप प्रत्यभिज्ञान माना जावेगा ? आप निर्णय कीजिये ।