________________
८८
तत्वार्थ लोकवार्तिके
व्यवहारेण प्रामाण्यस्योपगमात्तत्रापर्यनुयोज्या एवं व्यवहारिणः । किं न भवंतः स्वप्नादिप्रत्ययस्य जाग्रत् प्रत्ययवत् प्रमाणत्वं व्यवहरति तद्वद्वादो जाग्रद्बोधस्याप्रमाणत्वमिति केवलं तदनुसारिभिस्तदनुरोधादेव कचित्प्रमाणत्वमप्रमाणत्वं चानुमंतव्यमिति ब्रुवाणः कथं शास्त्रं मोहनिवर्तनमाचक्षीत न चेद्व्याक्षिप्तः ।
बौद्धों का मत है कि हमारे यहां व्यवहारसे प्रमाणपना माना गया है । शासन करनेवाला भले ही यवन हो प्रमाण है । और असत्य पक्षपात रखनेवाला ब्राह्मण भी प्रमाण नहीं है । हस्ताक्षर साक्षी ( गवाह ) भोग ( काबू ) प्रमाणपत्र ( सर्टिफिकट ) ये सब प्रमाण मान लिये गये हैं । अतः व्यवहार करनेवाले लौकिकजन उस प्रमाणव्यवस्था में तर्कणा करने योग्य नहीं हैं कि ज्ञान ही प्रमाण है । निर्विकल्पक प्रमाण नहीं हो सकता है। स्वप्नज्ञान भी प्रमाण हो जायगा इत्यादि । इसपर हम स्याद्वादी कहते हैं कि यों तो आप बौद्ध स्वप्न, मदमत्त आदिके ज्ञानोंको जगते हुये जीवोंके ज्ञानके समान प्रमाणपनेका व्यवहार क्यों नहीं करते हैं ? अथवा स्वप्न आदि ज्ञानोंको अप्रमाणपनेके व्यवहार समान जागती अवस्थाके ज्ञानको भी वह अप्रमाणपना क्यों नहीं व्यवहृत हो जाता है ? इसका उत्तर दो, केवल उस व्यवहार के अनुसार चलनेवाले लौकिक जनों करके उस व्यवहारके अनुरोधसे ही किसी में प्रमाणपन और किसीमें अप्रमाणपन मान लेना चाहिए, इस प्रकार कह रहा बौद्ध भला शास्त्रोंको मोहकी निवृत्ति करानेवाला कैसे कह सकेगा ? और कहेगा तो मत्तके समान घबडाया हुआ क्यों नहीं समझा जायगा ? अर्थात् — मोही जीव ही तो व्यवहारी हैं । और व्यवहार के अनुसार प्रमाणपना माना गया ऐसी दशामें शास्त्र करके कषायों और इन्द्रियलोलुपताका निग्रह कैसे किया जा सकेगा ? इस लीलाको तुम्ही जानो ।
ये हि यस्यापर्यनुयोज्यास्तच्छास्त्रेण कथं तेषां मोहनिवर्तनं क्रियते । व्यवहारे मोहवत् क्रियत इति चेत् कुतस्तेषां विनिश्रियः । प्रसिद्धव्यवहारातिक्रमादिति चेत् कोसौ प्रसिद्धी व्यवहारः ? सुगतशास्त्रोपदर्शित इति चेत् कपिलादिशास्त्रोपदर्शितः कस्मान्न स्यात् १ तत्र व्यवहारिणामननुरोधादिति चेत्, तर्हि यत एव व्यवहारिजनानां सुगतशास्त्रोक्तो व्यवहारः प्रसिद्धात्मा व्यवस्थित एवमतिक्रामतां तत्र मोहनिवर्तनं सिद्धमिति किं शास्त्रेण तदर्थेन तेन निवर्तनस्यानिष्टौ तु व्याहता शास्त्रप्रणीतिः किं न भवेत् १ ।
कारण कि जो संसारी जीव जिसके विषय में तर्कणा करने योग्य ही नहीं है, उस शास्त्र करके उनके मोहकी निवृत्ति भला कैसे की जा सकेगी ! बताओ । यदि बौद्ध यों कहें कि व्यवहारमें जैसे मोह कर लिया जाता है, वैसे ही शास्त्रों है । इसपर तो हम जैन पूछेंगे कि उन व्यवहारियोंको मोह निवृत्त हो गया है ? यदि लोकमें प्रसिद्ध हो रहे
द्वारा मोहकी निवृत्ति भी कर ली जाती विशेषरूपसे निश्चय कैसे हुआ कि हमारा व्यवहारका अतिक्रमण हो जानेसे निश्चय