________________
तत्वार्थचिन्तामणिः
فخ
दशाके बाधक ज्ञानोंको बाधासहितपना देखा जाता है । अतः . सभी जागृत दशाके ज्ञानोंको बाधासहितपना सिद्ध हो जावेगा । अर्थात्-जगते हुये पुरुषको सीपमें चांदीका ज्ञान बाधासहित हो रहा है । और भी बहुतसे ज्ञान आजकलके अल्प ज्ञानियोंको बाधासहित हो रहे हैं । इनको दृष्टान्त बनाकर जागरूकोंके अन्य ज्ञान भी बाध्य हो जायंगे।
तस्य निर्वाधस्यापि दर्शनानैवमिति चेत्, सत्यस्वप्नजप्रत्ययस्य निर्बाधस्यावलोकनात्सर्वस्य तस्य सबाधत्वं माभूत् । तस्मादविचारितरमणीयत्वमेवाविचलनमर्थक्रियायाः संवादनमभिमायनिवेदनात् कचिदभ्युपगंतव्यं । ते च स्वप्नादावपि दृश्यंत इति तत्सत्ययस्य प्रामाण्यं दुनिवारम् ।
बौद्ध कहते हैं कि उस जागृत दशाके बाधकज्ञान भला बाधाओंसे रहित भी तो देखे जाते हैं । अतः इस प्रकार सबको बाध्य कहना ठीक नहीं है। इस प्रकार कहनेपर तो हम जैन भी कह देंगे कि स्वप्नमें उत्पन्न हुये सत्यज्ञानोंका बाधारहितपना भी देखा जाता है । अतः उन सभी स्वप्नज्ञानोंको बाधासहितपना मत ( नहीं ) होओ। तिस कारण स्वप्नमें भी किसी अंशमें प्रतिपत्ताके अभिप्रायका निवेदन हो रहा है । अतः अर्थक्रियाका नहीं चलायमानपनारूप सम्वादन मानना बौद्धोंका विना विचार किये गये ही मनोहर हो रहा है। विचार करनेपर तो जीर्ण वस्त्रके समान सैकडों खण्ड हो जाते हैं, यह मानलेना चाहिये । वे आकांक्षानिवृत्ति, परितोष, अर्थक्रियास्थिति, अभिप्राय निवेदनरूप अविसम्वाद तो स्वप्न आदिमें भी देखे जाते हैं । अतः उन स्वप्न आदिके ज्ञानोंको भी प्रमाणपना दुर्निवार हो जायगा। इस कारण बौद्धोंका माना हुआ प्रमाणका सामान्य लक्षण अतिव्याप्त ही रहा।
प्रामाण्यं व्यवहारेण शास्त्रं मोहनिवर्तनम् । ततोपर्यनुयोज्याश्चेत्तत्रैते व्यवहारिणः ॥ ६२॥ । शास्त्रेण क्रियतां तेषां कथं मोहनिवर्तनम् । तदनिष्ठौ तु शास्त्राणां प्रणीतिाहता न किम् ॥ ६३॥
बौद्ध मानते हैं कि लौकिक व्यवहारसे प्रमाणपना है । मुख्य प्रमाण कोई नहीं है। और विद्वानोंके बनाये हुये शास्त्र तो केवल मोहकी निवृत्ति करनेवाले हैं । कोई नवीन प्रमेयके ज्ञापक नहीं हैं । तिस कारण उस प्रमाणपनेमें ये व्यवहारी जन प्रश्नोत्तर करने योग्य नहीं हैं। अर्थात्व्यवहारमें जिस किसीसे भी समीचीनज्ञान हो जाय वह प्रमाण है। और जिससे मोहकी निवृत्ति हो जाय वही सबसे अच्छा शास्त्र है । पारमार्थिक प्रमाण व्यवस्था कोई न्यारी बात है। इस प्रकार बौद्धोंके कहनेपर तो हम कहेंगे कि ऐसे चाहे जिस किसी शास्त्र करके उन व्यवहारियोंके मोहकी निवृत्ति कैसे की जायगी ? यदि उस मोहकी निवृत्तिको वास्तविक इष्ट न करोगे तो शास्त्रोंका प्रणयन ( बनाना ) करना व्याघात दोषयुक्त क्यों नहीं होगा।