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________________ तत्वार्यलोकवार्तिके सोपि यदि मुख्यमंतरं छिद्रं मध्यं ब्रूयात् तदानुपहतवीर्यस्य न्यग्भावे पुनरुद्भूतिदर्शनात्तद्वचनमिति विरुध्यते विरहकालाख्यस्यांतरस्यानेन समर्थनात् अथाप्रधानं तदिष्टमेव । अब आचार्य कहते हैं कि वह शंकाकार भी छिद्र अथवा मध्यको यदि मुख्यरूपसे अन्तर कहेगा तब तो श्री अकलंकदेवके उस वार्तिकसे अगली इस वार्तिकद्वारा उसका विरोध प्राप्त होगा कि नहीं नष्ट हुई है शक्ति जिसकी, ऐसे द्रव्यकी निमित्त कारणवश किसी पर्यायके तिरोभाव हो जानेपर फिर अन्यनिमित्तोंसे उसी ही पर्यायका प्रकट होना देखा जाता है । अतः उस सूत्रमें अंतर का वचन किया है । इस वार्तिकसे भगवान अकलंकदेवने विरहकाल नामके अंतरका समर्थन(पुष्टि) किया है । अर्थात्-मुख्यरूपसे विरहकालको अन्तर माना है । छिद्र और मध्य यदि मुख्य अंतर समझे जावेंगे तो शंकाकारके कथनका दूसरी वार्तिकसे विरोध हो जाता है । हां; जब यदि उन छिद्र और मध्यको अन्तरका गौण अर्थ मानते हो सो तो हमको इष्ट ही है। कालप्ररूपणसे न्यारी अन्तर प्ररूपणाको करने में प्रत्युत इससे और सहायता प्राप्त हो जाती है। सांतरं काष्ठं सछिद्रमिति प्रतीतेर्मुख्यं छिद्रमिति चेन्न, तत्रापि विरहस्य तथाभिधानात् । द्रव्यविरहः छिद्रं न कालविरह इति चेन्न, द्रव्यविरहस्य पदार्थप्ररूपणानंगत्वात् । क्षेत्रं व्यवधायकं छिद्रमिति चायुक्तं तस्य मध्यव्यपदेशप्रसंगात् । भागो व्यवधायको मध्यमिति चायुक्तिकं हिमवत्सागरांतरमित्यादिषु मध्यस्यांतरस्य व्यवधायकभागस्याप्रतीतेः। पूर्वापरादिभागविरहोंतरालभागो मध्यमिति चेत्, तर्हि सर्व एव क क्षेत्रविरहोंतरालरूपः छिद्रं इति विरह एवांतरं न्याय्यं, तत्र छिद्रमध्ययोः कथंछिद्विरहकालादनन्यत्वेपि जीवतत्वाधिगमानंगत्वादिहानधिकारादवचनं । विरहकालस्य तु तदंगत्वादुपदेश इति युक्तं । पुद्गलतत्त्वनिरूपणायां तु छिद्रमध्ययोरपि वचनं वार्तिककारस्य सिद्धम् । पुनः शंकाकार कहता है कि काठ सान्तर है । अर्थात्-छेदसहित है । इस प्रकार प्रतीति होनेके कारण अन्तरशब्दका मुख्य अर्थ छिद्र हो रहा है । आचार्य कहते हैं कि यह तो न कहना। क्योंकि वहां भी तिस प्रकार विरह [ व्यवधान ] का कथन किया गया है। इसपर शंकाकारका कहना है कि विरह अर्थ भले ही सही, किन्तु छेदसहित काठमें द्रव्यका विरहरूप छेद लिया गया है। कालका विरह तो छेद नहीं है । ग्रन्थकार कहते हैं कि इस प्रकार तो न कहना । क्योंकि द्रव्यका विरह पडजाना पदार्थकी प्ररूपणाका उपयोगी अंग नहीं है और व्यवधान करनेवाला क्षेत्र छिद्र है, इस प्रकार कहना भी अयुक्त है । क्योंकि यों तो उस छेदको मध्यपनेके व्यवहारका प्रसंग होगा। यानी वह छेद मध्य हो जावेगा। किन्तु शंकाकारने छेदको मध्यसे न्यारा माना है। तथा व्यवधान करनेवाला भाग ( हिस्सा ) मध्य है । इस प्रकार मध्यको छेदसे भिन्न निरूपण करना भी युक्तिशून्य है। क्योंकि " हिमवत्सागरान्तरं " इत्यादि प्रयोगोंमें अन्तर शब्दका मध्य अर्थ अभीष्ट है । किन्तु समद्रके मध्यमें हिमवान पर्वतके रहनेका व्यवधान करानेवाला भाग तो
SR No.090496
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1951
Total Pages674
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size21 MB
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