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तत्वार्थचिन्तामणिः
warraminauranamamimaramaniraueriamremporan
काल एव स चेदिष्टं विशिष्टत्वान्न भेदतः।
सूचनं तस्य सूत्रेस्मिन् कथंचिन्न विरुध्यते ॥५६॥
अपने अंतरंग बहिरंग कारणोंसे उत्पन्न होरहे पदार्थको किसी भी विनाशक कारणसे विशेष निवृत्ति होजाने पर पुनः कालान्तरमें उसकी उत्पत्ति होजानेसे तबतक पूर्वका व्यवहित समय अन्तर माना जाता है। इस पर कोई यों कहे कि इस प्रकार किसी उत्पन्न पदार्थके नष्ट होजाने पर पुनः उसकी उत्पत्ति होनेतकके व्यवधान कालको यदि अन्तर कहा जायगा, तब तो यह अन्तर काल ही हुआ। फिर सूत्रमें कालसे न्यारे अन्तरका निरूपण करना व्यर्थ है । ग्रन्थकार कहते हैं कि सो यह तो न कहना। क्यों कि सामान्यकालसे अन्तरकालमें विशिष्टता होनेसे उसका न्यारा कथन करना हमने इष्ट किया है । इस कारण इस सूत्रमें उस अन्तरका सामान्य कालकी अपेक्षा कथंचित् भेदसे सूत्रणा करना विरुद्ध नहीं पडता है । सामान्यके कहे जानेपर भी विशेष प्रतिपत्तिके प्रयोजन वश विशेषका उपादान करना न्याय है । " ब्राह्मणाः समायाताः, सूरिसेनोपि "।
ननु न केवलं विरहकालोतरं । किं तर्हि छिद्रं मध्यं वा अंतरशदस्यानेकार्थवृत्त श्छिद्रमध्यविरहेष्वन्यतमग्रहणमिति वचनात् । न चेदं वचनमयुक्तं कालव्यवधानवक्षेत्रस्य व्यवधायकस्य भागस्य च पदार्थेषु भावादिति कश्चित् ।
किसीकी शंका है कि मध्यवर्ती विरह ( कालव्यवधान ) को करनेवाला केवल काल ही अन्तर नहीं है, तो क्या है ? इसपर यह कहना है कि छिद्र अथवा मध्य भी अन्तर है । राजवार्तिक ग्रन्थमें श्री अकलंकदेवका यह वचन है कि अन्तर शब्दकी अनेक अर्थोंमें वृत्ति है । कहीं छेद अर्थमें वर्तता है, जैसे कि यह काठ सान्तर है, यानी छेदसहित है, कहीं भेद अर्थको कहता है, जैसे कि द्रव्य द्रव्यान्तरोंको बनाते हैं । इस वाक्यमें अन्तर शब्दका दूसरा भिन्न अर्थ वैशेषिकोंको अभिप्रेत है। कहीं विशेष अर्थमें अन्तर शब्द प्रयुक्त होता है। जैसे कि घोडे घोडेमें अन्तर है। एक केशित करनेवाला घोडा ( टटुआ ) दस रुपयेमें आता है, दूसरा गुणी शुभशकुनरूप अश्व दस सहन रुपयोंमें आता है। अतः घोडे घोडेमें विशेषता है। ऐसे ही लोहा, स्त्री, पुरुष, वसन, आम, चावल, आदिमें व्यक्ति रूपसे विशेषतायें हैं । कहीं बहियोगमें अन्तर शब्द बोल दिया जाता है। जैसे कि गांवके अन्तरमें कुयें हैं । अर्थात्-गांवसे बाहर कुये हैं । आदि तिन अनेक अनेक अर्थोंमें यहां छिद्र, मध्य और विरहकाल इनमेंसे चाहे जिस एकका ग्रहण समझना चाहिये । तथा यह भट्टाकलंक देवका वचन युक्तिरहित नहीं है । क्योंकि पदार्थोंमें जैसे कालकृत व्यवधान हो रहा है,उसी प्रकार व्यवधान करनेवाले क्षेत्रका भाग भी पदार्थोंमें विद्यमान है । अतः अन्तर शब्दसे विशेषकाल ही क्यों पकडा जाता है ! छिद्र और मध्य भी पकडने चाहिये,जो कि श्रीअकलंकदेव भी मानते हैं । यह कोई कह रहा है।